Thursday 13 October 2016

भूल गई खुशियां मेरा घर

नींद कंहा है आंखे बंदकर देख रहे हैं,
खुल जाए कभी सपनों के दर देख रहे हैं।

सोचा सपने कुछ खुशियां लेकर आ जाते,
भूल गई खुशियां मेरा घर देख रहे हैं।

कैसे मन को अपने हम अब धीर धराएं,
जब अपनों को आंसू से तर देख रहे हैं।

कितना कुछ खोया है बेकारी के कारण,
डिग्रियां कितनी झोली में भर देख रहे हैं।

लाचार नहीं फिर भी रोटी के लाले हैं,
पढ़लिख कर कैसे कटते पर देख रहे हैं।

रोटी खुद ही चलकर आती है लगता है,
जेबों में यूं हाथों को धर देख रहे हैं।

मजदूरी से घटती शान पढ़े जो ज्यादा,
'प्रीत' वही सब अब भूखे मर देख रहे हैं।
प्रीति सुराना

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