Sunday, 4 September 2016

याचक का दर्द

सुनो!!!
इस बार 
जब टूटकर जुड़ा हमारा रिश्ता,
एक महीन सी दरार रह गई 
हमारे मन के धरातल में
जो कमजोर कर गया मुझे,..

अब न मुझे वो अधिकार रहा 
न तुम्हे वो विश्वास
पहले तुम रूठते तो यकीन होता था
प्यार और समर्पण से मना लूंगी तुम्हें,..

वैसे तो अब भी 
वो अधिकार वो प्यार वो समर्पण
सब मौजूद है
लेकिन डर के एक पारदर्शी आवरण में,..

डर तुम्हे खो देने का जो रोकता है मुझे अपना अधिकार जताने से,
हाथ थाम कर तुम्हे रोक लेने से,
तुम्हे अपना सुख अपना दुख बेझिझक कहने से,
बेबाक तुमपर अपना प्रेम उड़ेलने से,..

आज महसूस हो रहा 
एक याचक का दर्द
एक याचक की विवशता
जो असमर्थ होता है किंतु जरूरतमंद भी,...

तभी तो अपने आत्मसम्मान को ताक पर रखकर
केवल जीवित रहने के लिए
अपनी क्षुधा की तृप्ति हेतु
करता है विवश होकर रोटी की याचना,..

तुम्हारा साथ भी तो मेरी अतृप्त भावनाओं का पोषक है
तुम्हे खोकर मर जाने से बेहतर लगता है
तुम्हारी ख़ुशी में खुश होना
बस याद रहता है जीवित रहने के लिए मुझे जरुरत है तुम्हारी,...

एक डर आत्मसम्मान के झगडे में तुम्हे खो न दूं,..
याचना तुमसे साथ की, प्रेम की,
बस तुम दूर न जाना
हमेशा तुम्हारे सारे दुख मेरे और मेरे सारे सुख तुम्हें समर्पित,.. बस तुम खुश रहो सदा!!!!
प्रीति सुराना

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