Monday, 23 May 2016

'तुलसी तेरे आंगन की,..'

सुनो!
तुम्हारे आंगन में
ठीक दरवाज़े के सामने
एक तुलसी का चौरा
बचपन से देखती आई हूं ,..

वो तुलसी
जिसमें रोज सुबह
देव पूजन से पहले
दिया जलाकर
परिक्रमा करती मां,...

वो तुलसी
जिसकी आड़ से झांकती थी मैं
तुम्हारे घर की दहलीज के उस पार,
सब कहते मेरी एक मुस्कान
दहलीज के बाहर से भी हर लेती है पीड़ा सबकी,..

वो तुलसी
जो जुकाम हो ज्वर हो
या हो कोई भी व्याधि
उपयोगी होती बनकर औषधि
करती शुद्धिकरण तन का,मन का, पूजन का,..

वो तुलसी
जिसने जब भी करनी चाही दहलीज पार
हर बार सुनी फटकार,
तुलसी कितनी ही गुणकारी क्यों न हो
रहती देहरी के बाहर ही है,...

वो तुलसी
जिसकी कहानी
मैंने अपनी मां से सुनी
एक बार नहीं कई कई बार
तब जाना तुलसी आंगन में क्यूं..?

वो तुलसी
जो विष्णु की उपासक होकर भी जलंधर से ब्याही गई
जो सती होकर रख में पनपी
तब जाकर मिले उसे विष्णु पत्थर स्वरुप में शालिग्राम बनकर,...

वो तुलसी
जिसने सही वृन्दा से तुलसी होने तक की पीड़ा,
जिसके बिना अधूरा है देवपूजन,
परिणीता होकर भी स्थान मिला देहरी के बाहर,
पत्थर स्वरूपी शालिग्राम के साथ,..

हां!
मैं समझती हूं
प्रतिरोधक पीरनाशक, व्याधिहर्ता,शक्तिवर्धक,
तुलसी की पीड़ा
जिसने अपना सब खोया आंगन में जगह पाने को,...।

क्या कभी तुम समझ पाआगे अपने आंगन की तुलसी की पीर,...???
प्रीति सुराना

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