Monday 4 April 2016

मन धीर धरे

अंखियों से नीर बहे
       मन की ये पीर कहे,
मन को मैं समझाऊं
         थोड़ा सा धीर धरे।

मन तो है बावरा सा
        तरसे है प्रेम को ही
प्रेम सच्चा मिले नहीं
       कोई अब क्या करे ?

ढूंढती है अखिंयां ये
        सपनों में अपनों को
कैसे समझाऊं इसे
           रिश्ते कहाँ रहे खरे।

रिश्तों में उलझा हुआ
           मन न समझ पाया
अपनों में रहके भी
           मोह से रहे परे। ,...प्रीति सुराना

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