कही से मटकती हुई आ रही है
वो देखो चहकती ख़ुशी आ रही है ।
न जाने कहाँ से उम्मीदें लिए वो
हसीना अकेली चली आ रही है।
मिलेगी कभी तो पिया से गले वो
इसी चाह में लो बही आ रही है।
नजर में वो चाहत की दुनिया सजाये
निराशा मिटा के बढ़ी आ रही है।
है मंजिल जरा दूर आँखों में तब ही
छलकती जरा सी नमी आ रही है।
मगर वो खुशी से लगी है बहकने
मिलन की लगे ज्यों घडी आ रही है,... प्रीति सुराना
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