Sunday, 18 October 2015

"क्या रावणदहन जरुरी है,.." ??

     जानती हूं थोड़ा अजीब सा सवाल है ये कि क्या रावण दहन जरुरी है?? पर सच कहूं जब से दशहरा की कहानी समझ में आने लगी तब से आज तक मैं इस सवाल का बोझ मन में लिए जी रही हूं। मेरे सवाल पूछने की वजह का दायरा बढ़ता गया पर व्यवस्थित जवाब जो इस सवाल को समूल सोदाहरण हल कर दे अभी तक नहीं मिला । पहले यही सवाल बालसुलभ जिज्ञासा थी पर अब आस्था की दृष्टि से, संस्कृति की दृष्टि से, मानव व्यवहार की दृष्टि से और आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से यही सवाल बार बार उठता है मेरे मन में कि क्या रावण दहन जरुरी है????
***पहले ये सपष्टीकरण की विचारों की अभिव्यक्ति के अधिकार के चलते मैं सिर्फ अपनी सोच आप सबके सामने रख रही हूं किसी से भी सहमति का आग्रह  या अपनी सोच लादने की नीयत नहीं है ।मेरा इरादा किसी भी धर्म, व्यक्ति,जाति या विचारधारा को ठेस पहुंचाना नहीं है फिर भी किसी का मन आहत हो तो करबद्ध अग्रिम क्षमायाचना करती हूं ।

# "आस्था" ये है कि मर्यादापुरुषोत्तम विष्णुअवतार "राम" द्वारा शिवभक्त महाज्ञानी "रावण" का वध बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है जिसे "दशहरा" के रुप में मनाया जाता है। आस्था कहती है जगत के रचयिता "ब्रम्हा-विष्णु-महेश" है । रामायण और महाभारत जैसी कथाओं को ईश्वर की लीला माना जाता है जो देश- काल और परिस्थिति के अनरूप मानव जाति को सही मार्गदर्शन के लिये और व्यभिचार और अत्याचार से सृष्टि के विनाश को रोकने के लिए रची गई थी।
इस कहानी ने बुराई पर अच्छाई की जीत की शिक्षा तो दी पर एक ही गुनाह की सज़ा सदियों तक देना सही है,..? प्रतीकात्मक ही सही हम बार बार रावण का दहन करने का अधिकार रखते हैं ?? क्या आज के युग में राम सा मर्यादा पुरुषोत्तम कोई है जो रावण के पुतले का भी दहन करने की पात्रता रखता हो ??
अब बात करें रावण जैसे भाई की?? सबको ये तो याद है की रावण ने सीता का हरण किया था पर क्यूं किया ?? सूर्पनखा की नाक कटने से आवेश में आकर किया था रावण ने  वो कृत्य । यानि अपनी बहन की मानहानि के फलस्वरूप उपजा आक्रोश था जिसने उसे ये कुकर्म करने के लिए प्रेरित किया था ? पर ये उसकी अच्छाई ही तो थी कि उसके बाद भी उसने सीता के साथ कोई ऐसा कृत्य नहीं किया जिसके लिए हर बार ऐसी सज़ा पाने का अधिकारी हो । अपनी बहन के मान के बदले बदला लेना उसकी राक्षसी प्रवृति थी पर हम तो मानव हैं ??
वो भी ऐसे मानव जिसे बचपन में जन्मघुट्टी के साथ कुछ संस्कार भी पिलाये जाते हैं जिनमे से एक सीख जो बचपन से मुझे भी दी गई थी कि "पाप से घृणा करो पापी से नहीं" पर सदियों से रावण दहन के रूप में हम उसे पापी मानकर उसकी हत्या का पाप करते आ रहे हैं,.. ?? क्या यही हमारी संस्कृति है,.. ?? यही मानवीयता है,.. ??
आज हम सभी को कटघरे में खड़े करके पूछा जाए तो प्रमाणित हो जाएगा कि आज के युग में राम तो है ही नहीं,.. जिसने मर्यादा का पालन किया हो । पर अपनी बहन से प्रेम रखने वाला, शिवभक्त और महाज्ञानी रावण जैसा दानव कहलाने योग्य एक भी मानव मैं अब तक नहीं देखा।
आज के युग में जब मानव के कृत्य दानव से भी घिनौने हो गए हैं तब ये प्रतीकात्मक दहन की परंपरा का औचित्य नहीं समझ पाई  मैं । व्यभिचार,अनाचार और भष्टाचार जैसे विषाक्त आचारों का दहन करना छोड़कर रावण का पुतला बनाकर जलाया जाना कहां तक सही है ?
एक तरफ हम दिनबदिन बढ़ती महंगाई का रोना रोते हैं,..दूसरी तरफ लाखो रुपए रावण बनाकर उसको जलने में नष्ट कर देते हैं । एक तरफ हम प्रदूषण से पृथ्वी को होने वाले संकटों के प्रचार प्रसार में पैसा बर्बाद करते हैं दूसरी तरफ बारुदी परम्पराओं का निर्वाह इतने जोर शोर से करते हैं कि जल थल वायु ध्वनि और जन धन को प्रदूषित करने में कोई कसर बाकी न रहे ।
क्या आपको नहीं लगता की अगर आस्था के चलते परम्परा निभानी भी हो तो इतना प्रदूषण और धन का नाश करने की बजाए ऐसे त्योहारों को कम से कम खर्च में मनाना चाहिए और त्योहारों का जो वास्तविक सन्देश का निर्वाह करना चाहिए,..यानि आज समय की मांग यही है कि सचमुच हमें अपने मानसिक विकारों और समाज में फ़ैल रही गंदगी का दहन या हनन करके अपनी संस्कृति को जीवित रखना चाहिए ना कि सिर्फ दिखावे के लिए या परम्पराओं को निभाने के लिए,..।
दशहरा की शुभकामनाओं के साथ मेरे सवालों के जवाब की अपेक्षा करती हूं ।

"समय की मांग"

चारो ओर जो फैल रहा है व्यभिचार का रोग अभी,
नारी वहम की बली चढे़ और तन मन से जाए यूं छली,.

सहभागी हर सुख-दुख में और सहगामिनी हर पल बनी,
उसी सीता की ली अग्निपरीक्षा और परित्यक्त भी हुई वही,

कंहा मिलेगा अब नर ऐसा,जो रावण ही बन जाए,
राम कई अब भी मिल जाएंगे पर रावण सा कोई बचा नही,..

प्रभु भक्ति ऐसी अनुपम थी,नस बनी वीना का तार,
ज्ञान का भंडार भरा था पर अहम् ज्ञान पर किया नही,..

सत्ता और जान लुटा दी जिसने बहन की कटी नाक पर,
पर स्त्री को हरण किया पर छल-बल से वरण किया नही,..

राम सा पति न भी मिले पर भाई रावण सा ही मिले,
नर राम नही रावण बन जाए, है आज समय की मांग यही,....प्रीति सुराना

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