Friday 16 October 2015

"मैं इस दिल का क्या करुं,..."


ये दिमाग भी ना !!
कुछ भी सोचता है,.
कभी कभी इसमें अजीब से कीड़े कुलबुलाते हैं,..

जैसे ये झुंझलाहट
कि जब दुनिया को दिमाग से ही चलना था
तो सृष्टि के रचनाकार ने दिल बनाया ही क्यूं,.????

ना दिल होता,.
ना दिल के दौरे का डर,..
न टीस,.न कसक,..

आंखों का काम भी
कुछ कम हो जाता
जो आंसू ना बहते,.

शब्दकोशों का वज़न भी
भावनाओं के भारी भारी शब्दों के बिना थोड़ा कम हो जाता,..

या फिर ये सुविधा होनी चाहिए थी
कि कुछ जिस्म बिना दिल के भी
जी सकते,..

या दिलों में चालू/बंद करने की कोई सुविधा दी होती
ताकि दर्द महसूस हो
तो कुछ देर के लिए राहत मिल जाती,..

या फिर दिल का उपयोग आवश्यकतानुसार किया जा सकता जैसे खाने में नमक डाला जाता है स्वादानुसार,..

सुनो!!!
ये सारे ख़याल आते हैं
तुम्हारे साथ जीते जीते
जानते हो क्यूं??

क्यूंकि दिल की मरीज़ हूं
और तुम बसे हो दिल में धड़कनों की तरह,...
धड़कनों के बिना दिल नहीं चलता
और दिल के बिना जिंदगी,..

कभी-कभी
तुम्हारी बातों से
दिल बहुत दुखता है यार,..

"मैं इस दिल का क्या करुं,..." ,.प्रीति सुराना

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