सुनो !
मैं लटका आई
आज ऐसे सारे रिश्तों को सूली पर,..
जिन्हें लिया गया था
शक के दायरे में
या खड़ा किया गया था
कभी भी किसी भी
क्षम्य या अक्षम्य अपराध के लिए
रिश्तों की अदालत के कटघरे में,...
क्यूंकि
शक की एक चिंगारी
जीवन को राख करके ही शांत होती है
और
शक के कीड़े का ज़हर होता है "संक्रामक"
जो जिसे काटे उसे ही नहीं
बल्कि संपर्क में आने वाले
हर रिश्ते को
विषैला करके ही दम लेता है,...
क्या फायदा
ऐसा ज्वलनशील
या विषैला रिश्ता जीने से
जो हमें ही नहीं
हमारे अपनों को भी दर्द दे,..
हां जानती हूं!!!!
आज बिल्कुल अकेली खड़ी हूं
दुनिया की भीड़ में,..
तो क्या हुआ???
आखिर अकेले ही जाना है दुनिया से
कम से कम रिश्तों का दर्द
और जीवित रिश्तों की लाशें
ढोने से तो बच जाउंगी,..
और फिर
रिश्तों के बिना
मैं भी एक जिन्दा लाश ही तो हूं
और क्यूं दूं दूसरों को सज़ा
अपना बोझ उठाने की,..
दुर्भाग्यवश
अपना अंतिमसंस्कार खुद करना
कहलाता है आत्महत्या
इसलिए
मजबूरन
ये अंतिम दायित्व
तुम्हें सौंपती हूं,..
जब दुनिया से जाऊं
तो तुम्ही करना मेरा अंतिमसंस्कार,..
"ओ पालनहारे निर्गुण और न्यारे"
क्यूंकि
तुम्हरे बिन हमरा कोन्हों नाही,... प्रीति सुराना
(फीलींग विरक्ति रिश्तों से टाइप😢)
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