नमस्कार!
लीजिये मैं एक बार फिर आ गई अपना एक नया दुखड़ा लेकर,... आशा है हमेशा की तरह अग्रिम क्षमा स्वीकार करेंगे क्यूंकि मैं केवल अपने मन में उठ रहे सवाल बवाल और भाव खुलकर आप सबसे कह कर मन में उठती भावों की लहरों के ज्वारभाटे से डरकर अपना दुःख अपनों से बांटना चाहती हूं,..क्यूंकि मैंने बचपन से सुना है
"दुःख बांटने से कम होते हैं" ,..
पर आज कुछ ऐसा देखा कि कश्मकश में हूं की क्या वाकई दर्द बांटने से कम होते हैं???क्या जीवन में कोई ऐसा होता है जो सचमुच हमारा दर्द बाँट लेता है??? माफ़ी चाहूंगी जानती हूं आपको लग रहा होगा की इस समय मेरी मनःस्थिति सही नहीं है,..सच बताऊं आज मैं सच में बहुत विचलित हूं।
हुआ यूं कि थोड़ी अस्वस्थता के कारण दिन भर घर पर उकताहट सी होने लगी थी,..घर और दुकान साथ है तो शाम को मैं अकेली दुकान पर बैठी थी क्यूंकि पतिदेव और बच्चे शाम की आरती के लिए मंदिर गए थे,..। घर के बाहर एक बड़ा सा आंगन बना हुआ है सड़क से थोडा दूर और सुरक्षित होने के कारण शाम को छोटे छोटे बच्चों की मस्तानी टोली अकसर वहां धमाचौकड़ी करती है। पड़ोस के मकान में एक तीन साल की छोटी बच्ची है। घर के सामने से अकसर गुब्बारेवाले, कुल्फी वाले , शुगर कैंडी वाले जानबूझकर घंटी बजाकर बच्चों को आकर्षित करते हुए निकलते हैI आज गुब्बारे वाला निकला ही था कि "रोली" वो तीन साल की बच्ची मचल गई गुब्बारे के लिए।
उसके पापा ने उसे गुब्बारा दिलाया और रोली गुब्बारे से खेलने लगी,.. धीरे धीरे कुछ ही मिनटों में 4-5 बच्चे इकट्ठे हो गए ,.. बच्चों की मस्ती शुरु हुई,..सभी छोटे बच्चे थे इसलिए सभी के माता पिता यानि हमारे पडोसी भी अपने अपने आंगन में निकल आए,..। तभी अचानक धड़ाम की आवाज़ के साथ गुब्बारा फूट गया और रोली खेलते खेलते गिर पड़ी।
उसके पापा ने दौड़ कर उसे उठाया और रोती हुई बच्ची के आंसू पोंछे, इतनी देर में सारे बच्चे गायब मेरे देखते देखते ही सबके माता पिता जो अपने आंगन में खड़े थे वो सब अपने घरों में घुस गए । मैं सामने ही बैठी थी मैंने मदद के लिए पूछा पर मेरी तबियत के कारण उन्होंने मना किया और रोती हुई बच्ची को डांटने लगे कि इसीलिए मना किया था बाहर मत खेलाकर,..गुब्बारा भी फूट गया और घुटने छिल गए सो अलग,.. अब दुखेगा तो रोना मत,..मम्मी को तंग मत करना,..यही सब कहते हुए वो भी बच्ची के साथ घर चले गए।।।
अब शुरु हुआ मेरा अन्तर्द्वन्द,..।
मान लो गुब्बारा "ख़ुशी" था,.. बिन बुलाए उस ख़ुशी में चार लोग शामिल हुए,..उन 5-6 बच्चों को खुश देखकर 8-10 पड़ोसी भी दूर से ही सही स्वार्थ से ही सही पर शामिल हुए,..। लेकिन गुब्बारे के फूटते ही यानि ख़ुशी के मिटते ही सब के सब धीरे धीरे वहां से खिसक लिए,..पिता उसके अपने थे उन्होंने आंसू पोंछे पर साथ ही जता भी दिया कि अब ख़ुशी बांटने की गलती मत करना,..दुःख मिलेगा तो अकेले सहना किसी को परेशान मत करना,.. क्षणिक सहानभूति के बाद अगले चार दिन डांट और नसीहतों के साथ उसके कुछ अपने मरहमपट्टी करते रहेंगे पर ख़ुशी के खोने और चोट का दर्द आंसू पोछने के बाद दर्द सिर्फ उस बच्ची को ही सहना है।
तब से बस यही सोच रही हूं,.. आज के समय में हर व्यक्ति तन -मन -धन -जन किसी न किसी कारण से दुखी है मानो दुःख जीवन का अभिन्न अंग बन गया हो और ये कड़वा सच ही तो है न कि हम सब भी जब ख़ुशी के गुब्बारे से खेलते हैं कई साथी साथ होते हैं,..काफिले साथ चलते हैं लेकिन जैसे ही हम अपने दुःख किसी को बताते हैं या चाहते हैं की मदद न करे न सही,..सुन तो ले,..ताकि मन हल्का हो जाए,..और तब???? विश्वास है मुझे आप सब ने भी कभी न कभी ये अनुभव किया होगा,..
"सुख के सब साथी दुःख में न कोय"।
अब ये बताइये जब दुःख में कोई साथी होगा ही नहीं तो दुःख बांटोगे किससे? और मज़बूरीवश माता,पिता,भाई, बंधू,सखा या कोई तथाकथित अपना मिल भी गया जो आपके दर्द को सुने और समझे तो वह निरी सहानभूति जताकर आपके आंसू पोंछ कर ना रोने और अपने खयाल रखने की सलाह के बाद आपको आपके दर्द के साथ अकेला छोड़ देता है,.. आज़मा कर देखिएगा अचानक आपके अपनों की संख्या कम होती जाएगी,..।
मैंने अपने छोटे से जीवन में "तन -मन -धन -जन" हर तरह से जुड़े सुख और दुःख दोनों जीये हैं और मैं जानती हूं दुनिया में सब एक से नहीं हैं,..विपरीत परिस्थितियों में भी इंसानियत बिरले लोगों में ही सही पर आज भी जिन्दा है,.. लेकिन दुनिया के मेले में चंद इंसानियत के अनुयायियों से सबका भला नहीं हो पाता,..जरुरत है इंसानियत को हर बन्दे में जगाने की,...जानती हूं बहुत मुश्किल है,..पर बस इसलिए कह दी क्यूंकि आप सब को अपना माना,..और मन की पीड़ा आपसे कह दी,..जानती हूं इसके बाद अपनों की संख्या में कमी आएगी पर कोई बात नहीं रहना इसी माहोल में है और
"सहानुभूति और साथ में फर्क को समझती हूं,."
क्यूंकि
मैं हंसी
तो हसें अनेक मेरे साथ,..
रोई तो कुछ ने पोंछे आसूं
पर साथ कोई रोया नहीं,..
मैं नासमझ
तब समझी
सहानुभूति और साथ का फर्क,...
और तब ही जाना बांटे बिना भी
हंसी और ख़ुशी का संक्रमण
तेजी से फैलता है,.....
पर ये बात
कि दुःख बांटने से कम होता है,..
मेरी समझ में कभी नहीं आई
मैंने तो अकसर अपनी जिंदगी में
दुःख में अपनों(,..???) को
कम होते देखा है,...प्रीति सुरानाI
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