मेरे शब्द बहुत जिद्दी हैं
रह रह कर
बाहर निकलते हैं
कमजोर हूं मैं
इन्हें संभाल नहीं पाती,..
बाहर आकर
शब्द बहुत उत्पात मचाते हैं
शरारती इतने हैं
कि दरो दीवार पर भी
छाप छोड़ जाते है,..
अच्छा नहीं लगता ना?
मन के राज़
जीवन के रास्ते से
आते-जाते गुजरते
सारे लोग पढ़ लें,...
सुनो!!
बंद कर रही हूं
आज
अपने मन के
सारे झरोखे
और दरवाज़ा,...
यही तो करती हैं ना
मां
जब कोई बच्चा
ज़िद पे अड़ जाता है
और शरारतों से बाज नहीं आता,...
अब तो मन के झरोखों
और दरवाज़े की कुण्डी तभी खोलूंगी
जब मेरा कहा मानेंगे
और मेरे हमदर्द बनकर
मेरे शब्द मेरे साथ रहेंगे,...प्रीति सुराना
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