Thursday 13 August 2015

शायद तुम लौट आओ

कल रात
मेरी खिड़की से
चाँद ने कुछ यूं ताका झांकी की,..
कि खिड़की के बहार लगे पेड़
और खिड़की पर लगी जाली से
चांदनी छनकर
मेरे कमरे तक आ रही थी,..
और ऐसा लग रहा था
मानों चाँद के चरखे से निकले 
धवल रेशम के ताने
किसी बुनकर ने
अपने हथकरघे पर तान रखे हों,
और इंतजार हो
बानो के बुनने का,..
और तभी
मैंने एक चिराग जलाया,..
अचानक यूं लगा
मानो चिराग़ के लौ से
निकलती किरणों ने
चांदनी के तानों से
बानों की तरह मिलकर,
एक झीना सा
रेशमी जरीदार पीताम्बर बुन दिया हो,.. 
मानो
कुदरत भी कर रही हो इशारा,..
उम्मीद के चिराग़ जलाए रखना,..
आएंगे तेरे सजना,..

सुनो
मैं आज भी
हर रात जलाती हूं
उम्मीद का एक चिराग़
तुम्हारे इंतजार में,..

शायद तुम लौट आओ,...प्रीति सुराना

 

2 comments:

  1. उम्मीदों का चिराग जलता रहे........शुभकामनयें
    सुन्दर / बेहतरीन

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  2. स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ आपको बताते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस पोस्ट को, १४ अगस्त, २०१५ की बुलेटिन - "आज़ादी और सहनशीलता" में स्थान दिया गया है। कृपया बुलेटिन पर पधार कर अपनी टिप्पणी प्रदान करें। सादर....आभार और धन्यवाद। जय हो - मंगलमय हो - हर हर महादेव।

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