Friday 31 July 2015

आरोप झेलती हूं,...


आज 

कुछ भी करने का जी नहीं कर रहा था 
तो सोचा 
चलो कुछ देर खुद को जी लूं,..
और जब भी 
खुद को जी लेने का मन होता है,
मैं आ जाती हूं छत पर 
खुले आसमान के नीचे 
और जमीन की सतह से थोड़ा ऊपर,...

अधर में लटका हुआ सा ही तो है 
जीवन 
क्यूंकि न पूरा दुःख है न पूरा सुख
दुःख में सुखों की झलक तलाशती हूं,...
जबकि जानती हूं सारे सुख आभासी हैं,..

यही सब सोचते सोचते नज़र गई आकाश पर,..
लगा मानो मेरी तरफ ताक रहा है,..
मैंने भी हिम्मत करके कहा तुम बहुत विशाल हो,..
इस विशालता से खुश तो हो ना?
आकाश ने कहा विशाल तो हूं पर खुश नहीं,...काश भर जाता मेरे पीछे का रीतापन,..

तभी वहां से हवा गुजरी,..
मैंने छेड़ा उसे 
तुम अपनी अल्हड़ता 
और आजादी से बहुत खुश लगती हो,..
हवा ने कहा,...
आज़ादी और अल्हड़ता तो दिखावा है,..
मैं तो बंधी हूं 
अपने बेरंग जीवन और खालीपन से,..

हवा से बातें करते करते 
जाने कब टहलते हुए 
घर के पीछे नदी के किनारे आ गई,..
नदी से भी कहा मैंने,..
कलकल बहती हो,..
उछलती कूदती हुई 
खुशियों से भरपूर हो,..
नदी ने झट से कहा,..
अपने अस्तित्व के 
सागर में विलीन होने से पहले 
यूं जीना मेरी मज़बूरी है,..

अब मन में जिज्ञासा और बढ़ गई 
तो सोचा 
सागर से भी मिल लूं,.
सागर से बात शुरू करने के लिए 
दी मैंने उसके गहरेपन की बधाई,...
हैरत हुई 
जब उसने भी 
गहराई में में छुपे 
एकाकीपन के राज की बात बताई,..

सबकुछ देख सुनकर 
मैंने वहीं 
जमीन पर पालथी लगाई,..
तभी जमीन के भीतर से 
आवाज़ आई,.. 
तुमने सबसे पूछ ली 
उनकी बेबसी और तनहाई,..
क्या तुम्हे एक बार भी 
मुझपर दया नहीं आई,...

सच कहूं 
अपनी इस हरकत पर मुझे भी शर्म आई,..
पर फिर खुद धरती ने 
मुझसे ये बात बताई,.....
मेरे भीतर भी बहुत है खालीपन,..
उसी खालीपन से तड़पकर 
जब जब जरा सा भी डोलती हूं,....
तबाही,विनाश,भूकंप 
और जाने कितनों की हत्या का आरोप झेलती हूं,...

सुनकर पथराई सी 
अब बस यही सोचती हूं,..
क्यूं मैं तुम्हें पाकर खोने से डरती हूं,...

संपूर्ण प्रकृति ही सह रही है आरोपों और उलझन को, 
और नहीं भर पाई जब वो भी अपने रीतेपन को,
सब कुछ सहकर भी हंसकर ही जीना होगा,..
अब समझना ही होगा ये सच मेरे भी मन को,.... प्रीति सुराना

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