हाँ!ये सच है कि मै दोषी हूँ....
क्योंकि मैनें अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करती हूं,...
यथार्थ की दुनियाको छोड़कर,..
कल्पनाओं के देश में परिभ्रमण करती हूं,..
पर जरा सोचिए,....क्या कल्पनाएं करना अपराध है,..क्या कल्पनाओं की कभी कोई सीमा होती है,....क्या कल्पनाओं को किसी दायरे में बांधा जा सकता है,..क्या कल्पनाओं में विचरण करने के लिए किसी की इज़ाजत की जरुरत है,..क्या कल्पनाएं जीवन को प्रभावित करती हैं....?
मुझे लगता है,....हां सीमाओं दायरों और इज़ाजत से परे कल्पनाओं की दुनिया जीवन को बहुत प्रभावित करती है। कल्पना और कर्म दोनों साथ हो और उससे खुद को तन मन धन अन्न और जन की हानि न हो तब तक कल्पना हमेशा सहयोगी ही है,...एक तरफ गुस्सा,डर, नफ़रत जैसे भाव मन को दुखी करते है,..वहीं प्रेम अपनापन आज़ादी जैसे भाव मन को सुखी करते हैं,...कल्पनाओं ने सृजन किया है फ़िल्म जगत चित्रकारी कविता एवम् साहित्य का,.. कल्पनाएं आधार बनी हैं अनेकों वैज्ञानिक अनुसंधानों की,... कल्पनाएं कर्णधार बनी हैं कई ऐतिहासिक घटनाओं की,..कल्पनाओं ने सुन्दर रूप में तराशा दुनिया को भव्यातिभव्य भवनों से,...।
मुझे पता है कि हर काम पूर्व नियोजित नहीं हो सकता,...क्योंकि हादसे जिंदगी का अभिन्न हिस्सा हैं,....पर जो कार्य पूर्वनिर्धारित है,...उसकी एक सुनियोजित रुपरेखा बनाई जाए तो वो बहुत व्यवस्थित तरीके से किया जा सकता है,...
मेरे लिए कल्पना क्या है,..????
जैसे अपने सपनो का घर बनाने से पहले जगह, जलवायु,बजट,नक्शा,समय और सुविधाओं के बारे में पहले से सब कुछ तय करना,... ये सब सिर्फ कल्पना पर आधारित और अनुमानित होता है,..इसी कल्पना के आधार पर बनता है हमारे सपनो का आशियाना,..
ठीक वैसे ही किसी हादसे के बारे में सुनकर डर लगता है,...मन कल्पनाओं से भर जाता है की यदि ऐसा मेरे साथ हुआ तो,....? एक कल्पना मात्र से मन विचलित होता है,..कभी कभी डर बैठ जाता है,..इस समय बहुत से नकारात्मक विचार उभरते हैं.,..पर जरा सोचिये इस डर की कल्पना से हमें क्या मिलता है,...????
अगर इस नकारात्मकता को नकार कर आगे बढ़ें तो मिलती है जागृति,.. सतर्कता,.सावधानी,.. जिन हादसों के बारे में सुना,...सुनकर डरे,.. पर अब ऐसे हादसे से निपटने का हौसला और मानसिकता दोनों ही खुदबख़ुद संचारित हो जाती है,... आत्मविश्वास बढ़ता है कि इन परिस्थितियों से निकलना या सामना करना उतना भी मुश्किल नहीं है,...बशर्ते नकारात्मक सोच पर काबू पाया जा सके,..
खैर ! इन बड़ी बड़ी बातों और उदाहरणों की बजाय सोचा जाए रोजमर्रा की बातों में कल्पनाओं के महत्व को,.. हम एक ही काम और एक सी दिनचर्या से उब जाते हैं,....हमें मनोरंजन और बदलाव की जरुरत महसूस होती है,...और मज़बूरी ये है की जीवनशैली ऐसी हो चली है आजकल कि न वक़्त मिलता है न मौका,..और एक सच ये भी है कि सुविधाओं के हम इतने आदी हो चले हैं कि बदलाव की कल्पना से ही बदलाव की विचारों में बार बार बदलाव भी करते जाते हैं,...
आभासी दुनिया या सोशल साइट्स ने जीवन में इतना प्रभाव डाला है की हमें ये महसूस होता है कि हम एक अलग ही दुनिया में जी रहे हैं,..इसे हम शुरु-शुरु में एक काल्पनिक दुनिया समझकर कदम रखते हैं,..लेकिन जैसे-जैसे जुड़ते हैं वैसे- वैसे समझ आता है की ये भी वास्तविक जीवन का हिस्सा ही है,..माना यहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है....पर धीरे- धीरे काल्पनिकता से परे वास्तविकता सामने आती है,...प्रोफाइल पिक्चर से लेकर स्टेटस तक सब कुछ सिर्फ दूसरों को दिखाने के लिए,...या खुद को बेहतर साबित करने की जद्दोजहद बनकर रह जाता है,....कला और साहित्य को प्रोत्साहन भले ही मिला सोशल साइट्स से लेकिन कल्पनाओं की दुनिया सी आज़ादी यहां भी नहीं मिल पाई,...
मैं सुबह उठती हूं,...पारंपरिक तरीके से ईश्वर को धन्यवाद करती हूं,..नए दिन का स्वागत करती हूं,..और साथ ही तय करती हूं आज नाश्ते में क्या बनाऊं की पति और बच्चे खुश हों,...तय करते ही एक काल्पनिक चित्र आंखो और मन में तैरता है,...और काम जो रोज-रोज करते हुए बोरियत देता है,...ख़ुशी की कल्पना मात्र से अच्छा लगता है,..काम की स्पीड और स्टेमिना दोनों बढ़ जाते हैं,..उसके विपरीत मैं बीमारी से पीड़ित रात भर तकलीफ के बाद सुबह नींद ठीक से खुलने से पहले ही मेहमान के आने की सूचना मात्र से खुद को और बीमार होने की कल्पना से ही अपने सारे काम बिगाड़ लेती हूं,..क्योंकि मैं पहले ही सोच लेती हूं कि मुझे तकलीफ हो रही,...ठीक इसी स्थिति में कोई अतिप्रिय सदस्य आगंतुक हो तो,..सारे दर्द तकलीफ भूलकर सिर्फ ख़ुशी की कल्पना से ही सब कुछ एकदम से ठीक लगने लगता है,... ठीक इसी तरह मैं गुनगुनाते हुए किसी गीत में खुद को महसूस करके ही खुश भी होती हूँ भावुक भी,..किसीसे प्यार किसी पे गुस्सा किसी से रूठना किसी को मनाना,..किसी को पाना किसी से बिछड़ना,.किसी को खोना किसी को तलाशना,..ये सब की सब बातें जब महज कल्पनाओं में होती है तो यकीनन होता है कलात्मक एवं नव सृजन,... और साथ ही मिलता है सुख में खुद को संतुलित और दुःख में हिम्मत रखने का हुनर,.. बढ़ती है पूर्वाभास की क्षमता,.. बढ़ता है कार्यों में गुणवत्ता का स्तर,... क्योंकि कल्पनाओं में जो होता है वो सिर्फ और सिर्फ हमारी मर्ज़ी से होता है,...न कोई दबाव न कोई मज़बूरी,...होती है सिर्फ 'आज़ादी दिल की',...दिल कहता है 'जियो जी भर के',.. क्योंकि "मन के हारे हारहै,..मन के जीते जीत,.",...
कुछ लोगों का मानना है कि ऐसे खयाली पुलाव पकाने वाले लोग मुर्ख होते हैं,.. दिवा स्वप्न भी एक बीमारी है,.तो क्या हुआ,..लेकिन कोई काम हम जीवन में सकारात्मकता महसूस करने के लिए करें,...जिससे किसी को कोई क्षति न पहुंचे,.. तन मन धन अन्न और जन की कोई हानि न हो तो शुक्रिया ऐसी कल्पनाओं का,...प्रीति सुराना
क्योंकि मैनें अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करती हूं,...
यथार्थ की दुनियाको छोड़कर,..
कल्पनाओं के देश में परिभ्रमण करती हूं,..
पर जरा सोचिए,....क्या कल्पनाएं करना अपराध है,..क्या कल्पनाओं की कभी कोई सीमा होती है,....क्या कल्पनाओं को किसी दायरे में बांधा जा सकता है,..क्या कल्पनाओं में विचरण करने के लिए किसी की इज़ाजत की जरुरत है,..क्या कल्पनाएं जीवन को प्रभावित करती हैं....?
मुझे लगता है,....हां सीमाओं दायरों और इज़ाजत से परे कल्पनाओं की दुनिया जीवन को बहुत प्रभावित करती है। कल्पना और कर्म दोनों साथ हो और उससे खुद को तन मन धन अन्न और जन की हानि न हो तब तक कल्पना हमेशा सहयोगी ही है,...एक तरफ गुस्सा,डर, नफ़रत जैसे भाव मन को दुखी करते है,..वहीं प्रेम अपनापन आज़ादी जैसे भाव मन को सुखी करते हैं,...कल्पनाओं ने सृजन किया है फ़िल्म जगत चित्रकारी कविता एवम् साहित्य का,.. कल्पनाएं आधार बनी हैं अनेकों वैज्ञानिक अनुसंधानों की,... कल्पनाएं कर्णधार बनी हैं कई ऐतिहासिक घटनाओं की,..कल्पनाओं ने सुन्दर रूप में तराशा दुनिया को भव्यातिभव्य भवनों से,...।
मुझे पता है कि हर काम पूर्व नियोजित नहीं हो सकता,...क्योंकि हादसे जिंदगी का अभिन्न हिस्सा हैं,....पर जो कार्य पूर्वनिर्धारित है,...उसकी एक सुनियोजित रुपरेखा बनाई जाए तो वो बहुत व्यवस्थित तरीके से किया जा सकता है,...
मेरे लिए कल्पना क्या है,..????
जैसे अपने सपनो का घर बनाने से पहले जगह, जलवायु,बजट,नक्शा,समय और सुविधाओं के बारे में पहले से सब कुछ तय करना,... ये सब सिर्फ कल्पना पर आधारित और अनुमानित होता है,..इसी कल्पना के आधार पर बनता है हमारे सपनो का आशियाना,..
ठीक वैसे ही किसी हादसे के बारे में सुनकर डर लगता है,...मन कल्पनाओं से भर जाता है की यदि ऐसा मेरे साथ हुआ तो,....? एक कल्पना मात्र से मन विचलित होता है,..कभी कभी डर बैठ जाता है,..इस समय बहुत से नकारात्मक विचार उभरते हैं.,..पर जरा सोचिये इस डर की कल्पना से हमें क्या मिलता है,...????
अगर इस नकारात्मकता को नकार कर आगे बढ़ें तो मिलती है जागृति,.. सतर्कता,.सावधानी,.. जिन हादसों के बारे में सुना,...सुनकर डरे,.. पर अब ऐसे हादसे से निपटने का हौसला और मानसिकता दोनों ही खुदबख़ुद संचारित हो जाती है,... आत्मविश्वास बढ़ता है कि इन परिस्थितियों से निकलना या सामना करना उतना भी मुश्किल नहीं है,...बशर्ते नकारात्मक सोच पर काबू पाया जा सके,..
खैर ! इन बड़ी बड़ी बातों और उदाहरणों की बजाय सोचा जाए रोजमर्रा की बातों में कल्पनाओं के महत्व को,.. हम एक ही काम और एक सी दिनचर्या से उब जाते हैं,....हमें मनोरंजन और बदलाव की जरुरत महसूस होती है,...और मज़बूरी ये है की जीवनशैली ऐसी हो चली है आजकल कि न वक़्त मिलता है न मौका,..और एक सच ये भी है कि सुविधाओं के हम इतने आदी हो चले हैं कि बदलाव की कल्पना से ही बदलाव की विचारों में बार बार बदलाव भी करते जाते हैं,...
आभासी दुनिया या सोशल साइट्स ने जीवन में इतना प्रभाव डाला है की हमें ये महसूस होता है कि हम एक अलग ही दुनिया में जी रहे हैं,..इसे हम शुरु-शुरु में एक काल्पनिक दुनिया समझकर कदम रखते हैं,..लेकिन जैसे-जैसे जुड़ते हैं वैसे- वैसे समझ आता है की ये भी वास्तविक जीवन का हिस्सा ही है,..माना यहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है....पर धीरे- धीरे काल्पनिकता से परे वास्तविकता सामने आती है,...प्रोफाइल पिक्चर से लेकर स्टेटस तक सब कुछ सिर्फ दूसरों को दिखाने के लिए,...या खुद को बेहतर साबित करने की जद्दोजहद बनकर रह जाता है,....कला और साहित्य को प्रोत्साहन भले ही मिला सोशल साइट्स से लेकिन कल्पनाओं की दुनिया सी आज़ादी यहां भी नहीं मिल पाई,...
मैं सुबह उठती हूं,...पारंपरिक तरीके से ईश्वर को धन्यवाद करती हूं,..नए दिन का स्वागत करती हूं,..और साथ ही तय करती हूं आज नाश्ते में क्या बनाऊं की पति और बच्चे खुश हों,...तय करते ही एक काल्पनिक चित्र आंखो और मन में तैरता है,...और काम जो रोज-रोज करते हुए बोरियत देता है,...ख़ुशी की कल्पना मात्र से अच्छा लगता है,..काम की स्पीड और स्टेमिना दोनों बढ़ जाते हैं,..उसके विपरीत मैं बीमारी से पीड़ित रात भर तकलीफ के बाद सुबह नींद ठीक से खुलने से पहले ही मेहमान के आने की सूचना मात्र से खुद को और बीमार होने की कल्पना से ही अपने सारे काम बिगाड़ लेती हूं,..क्योंकि मैं पहले ही सोच लेती हूं कि मुझे तकलीफ हो रही,...ठीक इसी स्थिति में कोई अतिप्रिय सदस्य आगंतुक हो तो,..सारे दर्द तकलीफ भूलकर सिर्फ ख़ुशी की कल्पना से ही सब कुछ एकदम से ठीक लगने लगता है,... ठीक इसी तरह मैं गुनगुनाते हुए किसी गीत में खुद को महसूस करके ही खुश भी होती हूँ भावुक भी,..किसीसे प्यार किसी पे गुस्सा किसी से रूठना किसी को मनाना,..किसी को पाना किसी से बिछड़ना,.किसी को खोना किसी को तलाशना,..ये सब की सब बातें जब महज कल्पनाओं में होती है तो यकीनन होता है कलात्मक एवं नव सृजन,... और साथ ही मिलता है सुख में खुद को संतुलित और दुःख में हिम्मत रखने का हुनर,.. बढ़ती है पूर्वाभास की क्षमता,.. बढ़ता है कार्यों में गुणवत्ता का स्तर,... क्योंकि कल्पनाओं में जो होता है वो सिर्फ और सिर्फ हमारी मर्ज़ी से होता है,...न कोई दबाव न कोई मज़बूरी,...होती है सिर्फ 'आज़ादी दिल की',...दिल कहता है 'जियो जी भर के',.. क्योंकि "मन के हारे हारहै,..मन के जीते जीत,.",...
कुछ लोगों का मानना है कि ऐसे खयाली पुलाव पकाने वाले लोग मुर्ख होते हैं,.. दिवा स्वप्न भी एक बीमारी है,.तो क्या हुआ,..लेकिन कोई काम हम जीवन में सकारात्मकता महसूस करने के लिए करें,...जिससे किसी को कोई क्षति न पहुंचे,.. तन मन धन अन्न और जन की कोई हानि न हो तो शुक्रिया ऐसी कल्पनाओं का,...प्रीति सुराना
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