हर बात दिल की सबसे कहना जरुरी तो नही,..
जिससे कहना हो वो सुने भी जरुरी तो नही,...
मैं तो यूं ही बैठी थी तनहा खुद ही की तलाश में,..
पर यूं तनहा खामोश रहना मेरी मगरूरी तो नहीं,..
जिसे दिल ने चाहा हो जंहा में रब से भी ज्यादा,.
चाहे मुझे उतना वो भी ऐसी कोई मजबूरी तो नहीं,..
रहता है हर लम्हा जो मेरी सांसों में सरगम सा,..
मीलों का रास्ता भी दरमियां हो तो हो पर दूरी तो नहीं,..
माना नही होता सब कुछ मुकम्मल जिन्दगी में,..
पर जिंदगी ही जो नेमत मिली वो अधूरी तो नहीं,..
अधूरा रहना तो यूं भी ख्वाहिशों की फितरत ही है 'प्रीत',..
मिलकर भी न मिले तो ख्वाहिश मिलने की पूरी तो नही,....प्रीति सुराना
सुन्दर प्रस्तुति-
ReplyDeleteआभार आदरणीया
बहुत सुन्दर रचना.
ReplyDeleteनई पोस्ट : पुनर्जन्म की अवधारणा : कितनी सही
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (16-11-2013) "जीवन नहीं मरा करता है" चर्चामंच : चर्चा अंक - 1431” पर होगी.
ReplyDeleteसूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है.
सादर...!
bahut aabhar apka
Deleteभावो का सुन्दर समायोजन......
ReplyDeleteबहुत बढ़िया कृति ...
ReplyDeleteहम सभी,एक ही घाट के प्यासे हैं.
ReplyDeleteसुंदर
खूबसूरत एहसास...
ReplyDeleteसुंदर रचना बधाई आपको ।
ReplyDeleteजो जिंदगी मिली है वो भी कम नहीं ... उसे जीना भी आसां नहीं ...
ReplyDeleteलाजवाब गज़ल ...