वीर ये तो है माया नगरी,.
यहां है बस छल और माया,..
झूठे सपनों,झूठे खेलो में ही,.
मानव मन तो है भरमाया,..
पर डर कैसा तुम हो माझी,..
हम हो जाएंगे भवपार,..
गहरी धारा,.. दूर किनारा,...प्रभु थामो मेरी पतवार,...
मानव ने कभी भी सृष्टि में,.
अपनी लघुता को न माना,..
मन बावरा पंछी चातक सा,
चांद को ही अपना जाना,..
बस झूठी तृष्णा की लहरें,...
काटो वीर मोह की धार,..
गहरी धारा,.. दूर किनारा,...प्रभु थामो मेरी पतवार,...
अंगारों पर नीड़ बनाकर,.
जीते हैं बस भ्रम पाले,..
फूलों के धोखे में जाने हमने,.
कितने कांटे चुन डाले,.
मोह भ्रमर मंडराए जीवन में,...
लो वीर हमें अब तार,..
गहरी धारा,.. दूर किनारा,...प्रभु थामो मेरी पतवार,...,...प्रीति सुराना
नमस्कार आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (08-09-2013) के चर्चा मंच -1362 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ
ReplyDeletedhanywad
Deletebahut achchha likha
ReplyDeleteपता लगाये किसने आपकी पोस्ट को चोरी किया है
thanks
Deleteसुन्दर रचना...
ReplyDelete:-)
dhanywad
Deleteसुंदर रचना
ReplyDeleteWAAH bADHIYA
ReplyDelete☆★☆★☆
अंगारों पर नीड़ बनाकर
जीते हैं बस भ्रम पाले
फूलों के धोखे में जाने हमने
कितने कांटे चुन डाले
...
गहरी धारा,.. दूर किनारा,...प्रभु थामो मेरी पतवार,...,...
वाऽहऽऽ…!
बहुत सुंदर आध्यात्मिक रचना है आदरणीया प्रीति सुराना जी !
आपकी लेखनी से सदैव संदर श्रेष्ठ सार्थक सृजन होता रहे...
हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
aabhar
Delete