सुनो
मैं जानती थी
तुम्हे और तुम्हारे प्यार को
मुझे लगता था
तुमने प्यार की डोर से
मुझे बांध रखा है
मैं उस बंधन से मजबूती से बंधी हूं
जरा दूरियां बढ़ी नहीं
और डोर में आया तनाव या खिंचाव
मुझे और मेरे वजूद को तकलीफ देता है
और मैं करीब आ जाती हूं
तब महसूस करती हूं राहत,....
पर
आज मैंने करीब आकर
राहत नही महसूस की
मैं बेचैन हूं ये देखकर
कि प्यार की डोर का दूसरा सिरा
जो तुमसे बंधा होना था
वो आजाद है हर बंधन से
तभी तो इस डोर में आए
तनाव का असर भी तुम पर नही होता
तभी तो मेरे दूर जाते ही
कभी तुम खिंचे नही आए मेरे पास
दरअसल
तुमने तो वो प्यार की डोर
अपनी उंगली में लपेट रखी थी
तुम व्यस्त थे
अपने ही कामों और अपनी ही दुनिया में
एक सच ये भी था मैं तो हमेशा अपनी जगह पर ही थी
जो तनाव या कसाव मैं महसूस करती थी
वो तुम्हारे काम करते हुए
हाथों की हरकतों की वजह से होता था
और मैं दोषी खुद को मानकर
तुम्हारे करीब आती रही
पर आज
तुम्हारी उंगलियों पर बंधी डोर ने महसूस करवाया
मेरी जीवन डोर तुमसे बंधी तो है
पर वो प्यार का बंधन नही है,....
तो क्या कहूं,..कैसा है ये बंधन
क्या नाम दूं इसे,..सोच ही रही थी,..
तभी घर के बाहर गली में शोर सुनाई दिया
खिड़की से झांककर देखा
तो कठपुतली का तमाशा दिखाने वाले आए थे
एकाएक मेरे सवालों का दौर थम गया
मेरे वजूद पर मन में उठे सवाल का जवाब मेरे सामने था,..
"कठपुतली",.............प्रीति सुराना
आपने लिखा....
ReplyDeleteहमने पढ़ा....
और लोग भी पढ़ें;
इसलिए शनिवार 06/07/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in
पर लिंक की जाएगी.
आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
लिंक में आपका स्वागत है .
धन्यवाद!
thanks
Delete:)
सुन्दर-
ReplyDeleteबहुत सुन्दर....
ReplyDeleteअनु
speechless .. sabse achhi cheez ye lagi ki bhasha bahut saral lekin pravaahpoorn hai. straight frm heart.
ReplyDeleteबहुत ही भावपूर्ण रचना..
ReplyDeleteबेहतरीन..