Tuesday, 23 July 2013

"कमबख़्त,..यकीन की आदत,.."

सुनो !

तुम 
कितनी जल्दी 
भांप लेते हो,.. 
मेरी बातों में छुपी 
तल्खियां,
मेरा गुस्सा, 
मेरी उदासी,..

फिर 
क्यूं तुम्हें 
इन सबके पीछे छुपा 
मेरा प्यार,
मेरा अपनापन,
मेरे जज़बात,
महसूस नही होते,..??

वैसे
मैं जानती हूं
तुम सब जानते हो,..
सब समझते हो,..
सब महसूस करते हो,..
बस तुम्हे आदत नही है
मुझको ये जताने की,..

माना
तुम्हे यकीन है, 
या शायद आदत हो गई है,..
बिना मनाए मेरे मान जाने की,
पर मैंने भी ठान ली है,
इस बार सचमुच 
तुमसे रूठ जाने की,..

खैर
अब लगा दी है
दांव पर जिंदगी अपनी,..
देखूंगी राह इस बार 
आखरी सांस तक तुम्हारे आने की,..
ये जानते हुए भी
तुम्हे आदत नहीं है मनाने की,..

सुनो
तुम आओगे
इस बार मनाने मुझको,..
ये यकीन मुझे भी है तुम पर,
पर कमबख़्त यकीन की आदत सी है
जिस पर हो,..
उसी से टूट जाने की,...,... प्रीति सुराना

(चित्र गुगल से साभार,..)

5 comments:

  1. आपकी रचना कल बुधवार [24-07-2013] को
    ब्लॉग प्रसारण पर
    कृपया पधार कर अनुग्रहित करें |
    सादर
    सरिता भाटिया

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  2. बहुत बुरी आदत है यह यकीन की...जिस अपर हो उसी से टूट जाने की :(

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    1. sahi to hai nidhi yakin wahin tutta hai jahan kiya ho,.. :(

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