सुनो!
तुम्हे वो दिन याद है??
जब तुमने मेरी तरफ हाथ बढ़ाते हुए कहा था,
अब से हम सारे सुख-दुख बांट लेंगे,..
मैंने बिना कुछ कहे,..
तुम्हारे बढ़े हुए हाथ को थामकर स्वीकृति दी थी,..
और
तब से अब तक
तुमने अपना हर सुख मुझे बताया,
हर दुख मुझसे बांटा,..
और मुझे अच्छा लगा
तुम्हारे सुख देखकर और दुख बांटकर,..
और
तुम्हे सुखी देखकर
मैं खुश रहने लगी,..
प्रार्थना करने लगी,..
मेरे हिस्से के सारे सुख तुमसे जुड़े हों,..
पर तुम्हारे हिस्से के सारे दुख मुझे मिल जाएं,.
फिर
महसूस किया तुम दूर होने लगे हो,...
मैंने कभी सुख नहीं मांगे तुमसे,..
पर दर्द सहा न गया तो सोचा,..
मुझे भी तो हक है,
बाट लूं थोड़ा दर्द तुमसे,...
पर
मैं अब तक स्तब्ध हूं,...:(
तुम्हारे जवाब से
कितनी आसानी से कह दिया तुमने,...
मैंने खुश रहने के लिए रिश्ता बनाया था,..
"तुम्हारे दुखड़े सुनने का वक्त नही है मेरे पास"
तुम
खुश तो रह लोगे,..
पर क्या मेरे बिना
उठा लोगे अपने दुख-दर्द
और परेशानयों का बोझ??
तुम्हे तो आदत नही रही,..
खैर!
न कर सको,
तो लौट आना,..
मैं यहीं हू,....
हमेशा
तुम्हारे लिए,......प्रीति सुराना
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(11-5-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
ReplyDeleteसूचनार्थ!
dhanywad
Deleteभाव पूर्ण रचना
ReplyDeletedhanywad
Deleteयह एक अच्छी कविता तो है इसमे कोई गुजाइस ही नहीं । पर उससे जय्दा मुझे लगता है आप अपने ज्जबात को ही लिख दिया है ।
ReplyDeleteधन्यवाद
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