शाम को छत पर बैठे बैठे यूंही खयाल आया
सूरज संध्या से कितना प्यार करता है न,...?
इतना कि
कुछ पल संध्या के साथ बिताने के लिए
निशा के दामन में टंके तारे
गिन गिन कर इंतजार करता है
और
उषा के आते ही काम पर लगा रहता है
सारे जग की प्रकाश व्यवस्था संभालता है
ताकि संसार अपनी आजीविका ठीक से चला सके
और
उस पर बेईमान मौसम,
कभी बादल तो कभी हवा छेड़ने को
कभी भी आ जाते हैं यादों के संदेश लेकर
और
बेचारा सूरज कभी छुपकर
कभी तमतमाकर जलता भुनता
तड़पता रहता है मिलने को संध्या से
और
मिलते ही कुछ देर में आ जाता है
चांद निशा के साथ
संध्या के स्वपन महल की चौकसी के लिए
फिर रह जाता है सूरज अकेला
कल फिर मिलने की उम्मीद लेकर दिल में प्यार लिए
अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करता हुआ,...,..........प्रीति सुराना
एकदम सटीक और सार्थक प्रस्तुति आभार
ReplyDeleteबहुत सुद्नर आभार अपने अपने अंतर मन भाव को शब्दों में ढाल दिया
आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
एक शाम तो उधार दो
आप भी मेरे ब्लाग का अनुसरण करे
thanks
Deleteसुन्दर भावों को बखूबी शब्द जिस खूबसूरती से तराशा है। काबिले तारीफ है।
ReplyDeletethanks
Deleteबढ़िया है आदरेया-
ReplyDeleteआभार-
बहुत ही सुन्दर भाव की प्रस्तुति,आभार.
ReplyDeletethanks
Deleteआपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति मंगलवारीय चर्चा मंच पर ।।
ReplyDeletethanks
Deleteवाह सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteबधाई
सूरज की उलझन को,उसकी प्रीत को खूब पढ़ा और सुन्दर शब्दों में गढ़ा......
ReplyDeleteअनु
thanks
Deletethanks
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