Sunday, 16 December 2012

"हमेशा-हमेशा"


सुनो!

तुम्हे लगता है न!
स्त्री चार दीवारों के भीतर 
ज्यादा अच्छी लगती है,..
मुझे स्वीकार है तुम्हारी ये पसंद,..
मैं तैयार हूं रहने को चार दीवारों में,...

बस उन चार दीवारों में से,
एक में बसे मेरे स्वपन श्रृंगार हों,
दूसरी में सिमटा अपनों का प्यार हो,
तीसरी में बना सुख-समृद्धि  का द्वार हो,
चौथी दीवार स्वास्थ का आधार हो,...

और हां!
छत में एक रोशनदान जरूर रखना,...
ताकि बसरती रहे उसमें से
धूप,बारिश,चांदनी और हवा
मैं जुड़ी रहूं प्रकृति से,
और न घुटे मेरा दम,,...

तुम बना लो ना,
मेरे लिए ऐसा एक आशियाना,..
अपने विशाल मन के आंगन में,
विश्वास की मजबूत नींव पर, 
भावनाओं की ईंट से,...

और हां! 
एक सबसे जरूरी बात,
मुझे तनहा रहना पसंद नही है,
साथ रहोगे न तुम, 
"हमेशा-हमेशा"

बस!
ये चार दीवारों से बना मकान,
मेरा घर,मेरी दुनिया बन जाएगा,
इस दुनिया से बाहर जीते जी न जाऊंगी,
मेरा वादा है तुमसे,............प्रीति सुराना

4 comments:

  1. सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति. पहली बार आपके ब्लॉग पर आया. अच्छी लगी रचनाएँ.

    निहार

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  2. स्त्री भी अपना जीवन जीना जानती हैं ..उसे भी प्रकृति में घुल मिल जाने की पुरी छुट होनी चाहिए उसे भी प्यार मोहब्बत की जरूरत होती .. उसे भी ढेरों खुशियाँ चाहिए। बड़े सलीके से अपनी बात कह डाली। आशा करता हूँ कि चार दीवारी में कैद करने की कहने वालों तक ये शंदेश जरुर पहुंचे।

    मेरी नई कविता आपके इंतज़ार में है  नम मौसम, भीगी जमीं ..

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