Friday 18 May 2012

"तुम्हारी वो गुड़िया"

तुम्हारी वो गुड़िया 

जो मैं ब्याह कर लाई थी 
अपने गुड्डे के लिए,
आज सालों बाद मिली मुझे
उस पुराने संदूक में,
जिसमें तुम्हारी तमाम य़ादें
समेट कर रख दी थी,
तुम्हारे जाने के बाद मैंने
घर के तहखाने में,
उसे देखकर लगा मानो वह
सुबकती सही सालों,
घुटती रही है जाने कब से
उस अंधेरे वीराने में,

सहसा मैंने महसूस की कुछ बूंदे
अपने गालों पे लुढ़कती,
और मेरे दिल को चीरती हुई सी
टीसती हुई एक कसक,
सीने मे कसमसाती हुई सांसों मे
बेचैनी और घुटन,
होठों की थरथराहट के पीछे
दबी अनकही बाते,
जीवन में हर पल टूटती हुई
उम्मीदों की चुभन,
सुंदर लिबास में सजे तन के भीतर
बिखरा हुआ मन,

यादों के संदूक से निकाल कर
लगा लिया कसकर सीने से,
फूट पड़ा आज मन में सालों से दबा
मेरे अहसासों का सोता,
लगा मानो मन के द्वार पर लगे
सारे ताले टूट गए,
आंखों ने बरस कर दे दी राहत
मेरे बेचैन मन को,
सांसों ने भी कुछ यूं दम भरा कि
निकाल दी घुटन सारी,
आज आजाद हो गई सालों से कैद
जिसे मै कहती थी "गुड्डी",

तुम्हारी वो गुड़िया,.....प्रीति

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