Sunday 19 February 2012

परिपक्वता


तुम आज भी ढूंढते हो मुझमें,
वो अठखेलियों और अपरिपक्वता से परिपूर्ण 
मेरी हंसी,मेरी बातें,
जो बहकाते थे हमारे कदमों को 
और
हम ठीक आमने सामने बैठे
जिंदगी के कितने ही पहर बिता कर भी,
थोड़े से पल और चुरा लेने को बहाने ढूंढा करते थे,
पर आज तुम्हे लगता है,
हमारे बीच 
बातों का ये सिलसिला अब थम सा गया है,
वो हंसी वो अठखेलियां,
दब गई है चेहरे की झुर्रियों,
बालों की सफेदी,
और उम्र की ढलान में,

पर मुझे महसूस होती है,
हमारे रिश्ते की वो परिपक्वता 
जंहा हम आमने सामने नही 
बल्कि हाथ थामे 
हमकदम होकर 
मंजिल की ओर,
निःशब्द मूक होकर बढ़ते चले जा रहे है,
क्यूकि अब हम संवाद करते हैं,
हाथों के पकड़ से, 
जो मुशकिल वक्त में और ज्यादा मजबूत हो जाती है,
खुशी के पलों में यही स्पर्श कितना मादक हो जाता है, 
होठों के फैलाव मे हंसी और व्यंग्य के बीच का फर्क,
आंखो की चमक और नमी,
अब हम सब कुछ महसूस करते है,
एक दूसरे को समझते है सिर्फ एहसासों से,
अब हम सुन सकते है
एक दूसरे के सीने की धड़कनों में छुपे सारे भाव,
आखिर हम पंहुंच ही गए 
प्रेम की उस चरम स्थिति में 
जब
संवाद मूक 
और 
एहसास मुखर हो जाते हैं,....प्रीति

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