Friday 24 May 2019

उजियारा

उजियारा

अपने  मन की सुनती हूँ,
नित मैं   सपने बुनती हूँ।

अनजाने   डर का साया,
मन ही मन  मैं घुनती हूँ।

बाहर   शीतलता  है पर,
भीतर-भीतर  भुनती हूँ।

देख  समय  की लीलाएँ,
अपना  माथा  धुनती हूँ।

दिन का  हरकारा आता,
मैं  उजियारा  चुनती  हूँ।

मूंद  पलक के परदों को,
जाने क्या-क्या गुनती हूँ।

प्रीति सुराना

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