मैं जब शादी करके वारासिवनी आई तो पहले ही दिन समकितजी के साथ घर से बाहर कदम निकला तो गौशाला पहुँची। गौशाला का मनोरम वातावरण, पीछे नदी, आसपास खेत, तालाब, बड़ा सा परिसर, 900 गोधन, 1000 से ज्यादा कबूतर, 200 से ज्यादा खरगोश, कुछ सफेद चूहे, कुछ खच्चर, कुछ घोड़े,... उस समय कहीं से कुछ मोर भी आ गए थे गौशाला में, डर तो बहुत लगा क्योंकि पशुओं के साथ कभी इतने करीब रही नहीं।
18 अप्रेल 1998 से अब तक 23 सालों में गोधन, कबूतर, खरगोश, कुत्ते, सफेद चूहे, घोड़े, खच्चर इन सब के साथ समय बिताना सबसे सुकून भरे पल होते हैं हमारे परिवार के लिए, और जब से वहाँ उपाश्रय बना तब से कभी अकेले बैठने का मन हो तो गौशाला की छत और उपाश्रय की छत मेरे सबसे पसंदीदा पॉइंट हैं, मस्ती का मन हो तो बिना जटाओं वाला विशिष्ट विशालकाय बरगद (जो शोध का विषय है) सबसे बेहतरीन जगह है।
23 सालों में गौशाला ने पशु प्रेम सिखा दिया और ये भी कि "जब तक आपके भीतर मूक पशुओं के लिए संवेदना जीवित है, आपके भीतर मानवता भी सुरक्षित है।"
पशु की अच्छाइयों से कभी इन्सान की भीतर की पशुता से तुलना करके सोचती हूँ तो लगता है, हम इन्सानों के भीतर छुपा पशु केवल पशुओं की बुराई ही सीख पाया, इनके गुणों को जीवन मे उतार लिया होता तो इनसे डर कभी नहीं लगता।
पिछले 9 सालों से टूटू-ट्वीटी, सिनी-टफी मेरे जीवन का अभिन्न हिस्सा है, बच्चों की तरह पाला है इन्हें आज लगता है, मानो मुँह से बोल ही तो नहीं पाते बाकी सब कुछ तो हम जैसा ही है इनमें, जिद, गुस्सा, प्यार, मनुहार,.. ऐसा लगता है अभी बोलेंगे माँ घुम्मू जाना है,.. वैसे बिना बोले भी ये सब बोलते हैं समझने के लिए इन्हें अपनाना होता है ये भूलकर की ये पशु हैं!
*आई लव एनिमल्स*
*लव यू टूटू-ट्वीटी, सिनी-टफी*
माँ
डॉ प्रीति समकित सुराना
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