Thursday 9 July 2020

*लॉकडाउन में विवाह आदि समारोह:- आकलन परिस्थितियों का*


हर समारोह की अपनी एक महत्ता होती है, गौरव होता है, आवश्यकता होती है। 
हम किसी पल को समारोह के रूप में आयोजित करते हैं तो ये सुनिश्चित होता है कि वो पल बहुत महत्वपूर्ण है जो *तन,मन या धन* से हमें समृद्ध कर रहा होता है जिसकी खुशी हम *जन, स्वजन या जन-जन* से साझा करना चाहते हैं।
बात यदि विवाह की हो तो किसी कोर्ट, मंदिर, या अपनों के बीच या भव्य आयोजन में हो, घर की चारदिवारी में हो या समाज की साक्षी में या कोर्ट में चार गवाहों के बीच हो,.. विवाह तो हर हाल में दो दिलों, दो परिवारों, दो संस्कृतियों का मिलन ही होता है।
लॉकडाउन से विवाह का अर्थ नहीं केवल स्वरुप बदला है, कुछ लोग खुश दो लोग मिलकर भी हो लेते हैं, कुछ हज़ारों की भीड़ में भी संतुष्ट नहीं होते। मायने केवल मन की स्थिति का होता है, *जहां संतोष है वहाँ सुख है।*
लॉकडाउन ने एक बड़ा सबक दिया हर वर्ग को, 
*अधिकतम ने न्यूनतम में जीना, और न्यूनतम ने प्राप्त को अधिकतम मानकर स्वीकारना सीखा, मध्यम को स्वीकारना ही पड़ा कि मध्यम की स्थिति ही सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि समय की कसौटी पर कसा जाना कभी व्यर्थ नहीं जाता।*

*लॉकडाउन में समारोहों के संक्षिप्तिकरण का प्रभाव*

*नकारात्मक पक्ष*

*उच्चवर्ग* के लिए कोई भी आयोजन अपना सामर्थ्य, ऐश्वर्य और वर्चस्व को साबित और स्थापित करने का सुअवसर होता है, ऐसे में केवल सीमित लोग वो भी ऐसे लोग जो सतत संपर्क में हैं जो आपकी आर्थिक, मानसिक और सामाजिक कद-काठी से पूर्वपरिचित हैं उनके बीच आप कितना भी दिखावा कर लें परिणाम शून्य ही होगा क्योंकि समारोह का प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा।
*मध्यमवर्ग* समय और जिम्मेदारी के दो पाटों के बीच अभी भी पिस रहा मध्यमवर्ग जिम्मेदारियों को न छोड़ पा रहा है न पूरी कर पा रहा है, आज ही आ. शिखरचंद जैन जी का एक आलेख अन्तरा शब्दशक्ति की सृजन फुलवारी में पढ़ा जिसमें एक पंक्ति जो मध्यमवर्गीय की पीड़ा को परिभाषित करती है "जिससे लेना है, वो पैसा देता नहीं और जिसको देना है, वो पैसा छोड़ता नहीं।" ऐसे में कोई भी समारोह सिर्फ जिम्मेदारी का निर्वहन हेतु ही हो सकता है जिसमें एक भी अतिरिक्त व्यय खुशी की जगह क्षोभ उत्पन्न करता है।
*निम्नवर्ग* ने इस दौर में भी यदि समारोह किये हैं तो केवल शासकीय सुविधाओं का दुरुपयोग ही हुआ है अन्यथा गरीबी में जानबूझकर आटा गीला कोई नहीं करता। सादगी से सबकुछ किया जा सकता है।

*सकारात्मक पक्ष*

*उच्चवर्ग* में जो लोग दिखावे की चलते न चाहते हुए भी अंधानुकरण करते हुए विलासिता को बढ़ावा देते हुए वास्तविक रिश्तों, परिवार और समाज में रहकर भी सामाजिक दूरी को जी रहे थे वो परिवार और खुद के लिए समय निकाल कर खुद के लिए जी पाए। खुशी को खुशी की तरह मना पाए, सच में आयोजन को करीब से देखकर उसका हिस्सा बनकर जो खुशी मिलती है उसका कोई पर्याय ही नहीं।
*मध्यमवर्ग* को निम्नवर्ग की विवशता से पीड़ा और उच्चवर्ग की विलासिता से कुंठा दोनों से ऐसे समय में मुक्ति मिली जो अक्सर खुशी के पलों में भी पीड़ा का कारण बन जाते थे। 
*निम्नवर्ग* उदासीन पलों, अनिश्चित भविष्य और असुरक्षित जीवन में आनंद के कुछ पल नैराश्य को दूर करने के लिए पर्याप्त होते हैं।
कहीं पढ़ा था कि *गहन निराशा में आशा की एक नन्ही किरण भी जीवनरक्षक बन सकती है।*

खैर यहाँ भी मैं एक ही बात दोहराउंगी कि *लॉकडाउन में विवाह आदि समारोह* और तन मन धन और जन के परिपेक्ष्य में ये मेरा बिल्कुल व्यक्तिगत नजरिया है क्योंकि मेरा मानना है कि महामारी में सामाजिक दूरी की अनिवार्यता को समझते हुए भी, लॉकडाउन में भी यदि समारोह हुए हैं या हो रहे हैं तो कोई न कोई अनिवार्यता अवश्य होगी, अन्यथा,...

जब दो गज की दूरी जरुरी थी 
तब भी हम मिले,
तो यकीनन हमारी मजबूरी थी, 
कठिन दौर था मंजिल दूर थी
निराशा के अंधेरे में
थोड़ी रोशनी भी जरूरी थी।

ईश्वर से याचना है कि ये आपातकाल जल्दी से जल्दी खत्म हो, हम जिस वर्ग में भी हों सामान्य जीवन में लौट सकें और सभी अपनी-अपनी परिस्थितियों में सुखी और संतुष्ट रहें क्योंकि हर उत्सव मन की स्थिति पर ही निर्भर करता है।

#डॉप्रीतिसमकितसुराना

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