Thursday 4 June 2020

शाम होते ही



सुबह से शाम तक
जिम्मेदारियों से नहीं करती किनारा
शाम होते ही
होने लगती हूँ बेचैन
थककर, टूटकर, बिखरकर
तड़पकर मिलती हूँ हर रोज
रात से,...
जानती हूँ
ये रातें भरती है रंग मेरे सपनों में
मुझे कल जो करने हैं पूरे,
वो तमाम जिम्मेदारियाँ 
जो निभाती हूँ सुबह से शाम तक
वो दरअसल होता है
रात का उपहार,...!
हाँ!
ये बिल्कुल सच है
मैं नहीं डरती अंधरों से,
तन्हाई से,
एकांत से,
ये सब मिलकर देते है मुझे हौसला
दिनभर अपनों के लिए जी भर जीने का!

इस समय में मैं खुद को भूल जाती हूँ
और
ये अंधेरे मुझे इसलिए हैं पसंद
इसमें साया भी अपना दिखाई न दे,...!

#डॉप्रीतिसमकितसुराना

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