आसिफ और आशीष साथ खेल कर बड़े हुए। बड़े क्या हुए परिवार और समाज ने मजहबी बेड़ियाँ पैरों में डाल दी। दोनों उसी माहौल में बड़े हुए, आसिफ ने पुश्तैनी कामकाज संभाला और आशीष इंजीनियर बनकर पूणे रहने लगा।
बचपन बहुत पीछे छूट गया। दोनों ही इकलौते बेटे थे। वालिद नहीं रहे दोनों बहनों के निकाह के बाद आसिफ उसी मकान में रहता था। बदकिस्मती से आशीष के माता-पिता दोनों नहीं रहे।
महामारी कोरोना के फैलने के आसार अमेरिका के समाचारों में देखते हुए पत्नी और दो साल के बेटे के साथ गाँव के पुश्तैनी घर में रहने का फैसला कर गाँव लौट आए।
दोनों अगल-बगल रहते थे तो लौटते ही सामना अम्मी से हुआ, आशीष ने पैर छुए और पत्नी से भी पैर छूने को कहकर बेटे को अम्मी की गोद मे दे दिया।
सालों बाद आशीष को पहचान तो नहीं पाई पर दिल ने सुकून महसूस किया। आशीष ने कहा 'अम्मी सेवइयां नहीं बनाओगी बेटा लौट आया है', तभी आसिफ ने बीच में कहा 'और अम्मी ये नालायक आज ईदी में पोता लाया है।'
ये कहते ही 'दोनों हँस दिए' क्योंकि वो तो बचपन में भी छुपकर मिलते रहे और दूर रहकर भी साथ रहे, कभी मजहबी बंधन में बंधे ही नहीं क्योंकि दोनों ही इंसानियत के बंधन में बंधे थे।
आज ईद के दिन दोनों आँगन एक साथ खुशियाँ बाँटते हुए गाँव की मिट्टी को नमन कर रहे थे। आज सोचने पर मजबूर थे आखिर दुश्मन कौन है मजहब या मजहब के ठेकेदार?
#डॉप्रीतिसमकितसुराना
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