अंतर्मन की पीड़ा सबको
शब्दों में कैसे समझाऊँ?
मन को ही समझाती हूँ,
कर ज़रा सा सब्र मेरे मन।
कब तक पीड़ा सहूँ अकेली
कब तक ज़ख्मों को सहलाऊँ
सूख नहीं पाते हैं ज़ख्म
पीड़ा भी है और दुख भी
अपनों ने जो दिये है दर्द
गैरों को कैसे बतलाऊँ
मन को ही समझाती हूँ,
कर ज़रा सा सब्र मेरे मन।
समय-समय की बात है
कल हँसी थी आज रोई
पल-पल के परिवर्तन को
समझ नहीं पाता हर कोई
मन भी ऋतुओं से बदले है
ऋतुओं पर कैसे जोर चलाऊँ
मन को ही समझाती हूँ,
कर ज़रा सा सब्र मेरे मन।
आज बुरा है कल होगा अच्छा
यदि मेरा प्रयास है सच्चा
किसी को मैंने चोट नहीं दी
किसी को न हानि पहुँचाई
रात नहीं रहती न अँधियारा
मन में आस के दीप जलाऊँ
मन को ही समझाती हूँ,
कर ज़रा सा सब्र मेरे मन।
#डॉप्रीतिसमकितसुराना
बहुत बढ़िया
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