मैं
यूँ
बरबस बरस पड़े
आँसुओं का
सबब नहीं जानती
बस इतना पता है,..
हौसलों का पतझड़
भावनाओं का सावन
उम्मीदों का बसंत
सपनों की बहार
सारे मौसम एक साथ
इन आँखों में आ बसे हैं,..
बेमौसम
आँखे जाने कब
किस मौसम का साथ दे देती हैं
ये आँखे ही जाने,..
खैर!
आँखों में मौसम का कोई भी रंग हो,..
पर मन बेमौसम
बेचैन है बादलों सा
अशांत है हवाओं सा
शुष्क है पतझर सा
सिर्फ घाव हरे हैं
बहारों के मौसम से,..
सुनो!
ये आँखें, ये मन, ये मौसम,
और मैं,
आपस में उलझते क्यों है???
बेसबब, बेमौसम, बेइरादा,
तुम जानते हो क्या???
डॉ. प्रीति सुराना
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन विश्व नींद दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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