Saturday 29 December 2018

सुनो! बात मन की मन से,..

अन्तरा शब्दशक्ति द्वारा प्रकाशित 91 पुस्तकों के शीर्षक से बनी एक विशेष कविता जिनका विमोचन 5 जनवरी 2019 को दिल्ली में होगा।

*सुनो! बात मन की मन से,...*

एक संकेतदीप के जरिये,...

मैं *आमोदिनी*
कभी *रिश्तों की धरोहर* संभालती
कभी दरिया की *लहरों में समन्दर* ढूँढती
कभी *लहरों में मोती* तलाशती
सोचती हूँ,... शायद *जीना इसी का नाम है*।

*मैं अपराजिता*,..
कभी *हमारा कश्मीर* कहकर
वादियों को *मेरी विरासत* बतलाती
कभी *गुफ़्तुगू-दिल की दिल से* करते हुए
*तूफानों से आशनाई* मोल ले लेती।

अकसर *खुद की तलाश* में
*कस्तूरी* के पीछे भटकती हुई सी
खुद को भूल जाती
फिर सोचती *मैं कहाँ हूँ?*
तभी *गूँज हृदय की* सुनाती एक *अजनबी अंतर्नाद*!

एक ऐसा *शब्द-नाद*
जो मुझे *चक्रव्यूह-अस्तित्व के कश्मकश की कहानी* में उलझाता
और *मैं एक कहानीकार की रचना प्रक्रिया* की तरह जीवन के *काव्यपथ* पर
रचने लगती हूँ ख्वाबों के *घरोंदे*,..

कभी *परिंदे खयालों के* भरते *सपनों की उड़ान*
*ओस के आँसू* सींचते *अंतर्मन के अंकुर*
और *नवांकुर* होते *नन्ही दुनिया* के *सुरमई उजाले* से रूबरू
दिल मे *काव्य दस्तक* देता *मेरो मन आनंद* की स्वर लहरियों के संग,...

*भीगा मन* का *आईना* दिखलाता
*जिंदगी के रंग* अनूठे,
*कुमकुम वाले पाँव* खड़े होते *ख्वाबों की दहलीज़* पर
और *बस तुम ही* दे जाते *अहसास अपनेपन का*,..
सच *लफ्ज़ लफ्ज़ सिर्फ तुम*,..
और हौले से समझा जाते *नैनन नीर न धर*

खुद को *परिवर्तन के चक्रवात* से संभालती
*संस्कारों के हवनकुंड* में आहुत होने से बचाती
*गिलहरी* से चंचल मन को
*बालकों की अदालत* में खड़ा कर पूछती कुछ अटपटे सवाल
*जादू की छड़ी* हाथों में थामे *जिद है मेरी*
कि जाना है *चाँद के आगे*,
हाँ! ठान लिया है *अब न रुकेंगे*,

सोचती हूँ अगले ही पल
*काश! तुम आसमां होते*, सच्ची *मिस यू कान्हा*
हाँ! मेरा मनबसिया,.... *उसकी नीलाभ आंखों में*
मेरे *मामूली से जज़्बात*
*अश्रुबिंदु* की तरह चमकते है
जिसे देख मेरे अंतस में अनगिनत *अकथ अनुभूतियाँ*
मुखरित हो उठती हैं
कि तुमने भी,
*काश! कभी सोचा होता,....*

*वाह! जिंदगी*
तुम भी न,.. जाने कैसे-कैसे सतरंगी ख्वाब दिखलाती हो,
*सुनो! जरा धीरे चलो न,..*
तुम्हारी *पगडंडियों पर चलते हुए*
जीवन कथा के सागर में
एक *कथासेतु* बनाना चाहती हूँ
जिससे मेरे अहसास पहुँच सके
*मुझ से,.. मुझ तक*।

हाँ!
सचमुच समझ सको
तो समझना मुझे तुम,...

*मैं,..*
*मनस्विनी*
जीती हूँ एक ही जीवन मे कई-कई रूप
कभी *मस्ती की पाठशाला* में खेल-खेल में
पर्यावरण संरक्षण के
*परंपरागत तरीके सीखना चाहती हूँ*
कभी सारी मस्तियाँ भूलकर हमारी *मातृभाषा*,
*हिंदी साहित्य, कला और संस्कृति में समन्वय* की बातें सोचती हूँ।
कभी *स्त्रीविमर्श* करती हुई
*आठवाँ फेरा* होता तो जैसे क्लिष्ट सवालों के जवाब ढूंढती हूँ।
अगले ही पल *सच का दीपक* लेकर
अनैतिकता के अंधकार में फैल रही *कृपण दशा* में
खोती जा रही
अपने *देश की आभा* तलाशती हूँ।
मेरे भीतर *बर्फ में दबी आग* की तरह दफन है
ढेर सारे भाव आक्रोश, गुस्सा, जिज्ञासा
लेकिन सबसे अधिक प्रेम, *परस्तिश* और *अहसास के मोती*!
लाख छुपाऊँ सबसे लेकिन उसकी *अनुगूँज* मेरे व्यक्तित्व में झलकने लगती है।
मेरे *मन का पंछी*
*संचरण* करता हुआ
*मेरी उड़ान* को ले चलता है *काव्य गवाक्ष* में
जहाँ पहुँचकर मैं देना चाहती हूँ अपने भावों की
*दोहांजलि*,  *काव्य कुसुमवाली* और कुछ *प्यासे नग़मे* अपने अपनों को,..
मैंने *जीवन माला* में पिरोये हैं
*उपासना के मोती* भी,
मेरे *अंतर्मन की धारा* में समाहित है  *गागर में सागर* सी,
उमंग और उम्मीद की लहरें,...!
मैं एक
*स्वप्न तरुणी*
मेरे हृदय के *स्पंदन* में सम्मिलित है
*कुछ रंग धूप के*
और
*यादें-कुछ खट्टी कुछ मीठी*
अकसर जो उतर आती है शब्दों में
*अन्तरा-शब्दशक्ति* की प्रेरणा से,...!
सुनो!
अपेक्षा और उपेक्षा के दौर से परे
चलें हाथों में हाथ लिए
हम एक नई डगर में
एक नए सफर में,..
एक नए स्वप्न के साथ,..
चलोगे न,...??

*डॉ. प्रीति सुराना*
*संस्थापक*
*अन्तरा-शब्दशक्ति*

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