कहाँ रख पाते हैं
तमाम कोशिशों के बाद भी
खुश
छत, दर और दीवार को साथ-साथ
दर खुले
तो दीवारों पर गर्द,
और दीवार न हो
तो छत के ढहने का डर,
हौसला छोड़ दें,
तो सब कुछ बिखर जाने का खतरा,..
छत बनकर
ढकने की कोशिश करती रही
दरो दीवार को हमेशा
पर मुश्किल में हूं,
ये सोचकर
कि इसमें रहने वाले ही
जब खुश नहीं
तो
किस काम के आखिर
ये रिश्तों के मकान,
जिसमें
छत भी है ,
दर भी है,
दीवारें भी,..
पर सुरक्षित कुछ भी नहीं,..
"नींव में शायद विश्वास के पत्थर कम थे"
प्रीति सुराना
https://bulletinofblog.blogspot.com/2018/11/blog-post_20.html
ReplyDeleteसदा सुरक्षित केवल विश्वास ही है
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteहर शब्द बहुत कुछ कहता हुआ, बेहतरीन अभिव्यक्ति के लिये बधाई के साथ शुभकामनायें ।
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