हाँ!
जला रही हूँ
जाने कब से
तन को बाती
और
मन को तेल बनाकर
क्योंकि संस्कार
खुद जलकर
रोशनी बिखेरने के ही
दौड़ते हैं रगों में,..
प्रेम में समर्पण
माना
दायित्व है मेरा
पर अखरता है
कभी-कभी
तुम्हारा दीया होना
जब-जब
दिख जाता है
जरा सा झुकते ही
"दीया तले अंधेरा",..
फिर सोचती हूँ
कसौटियों में कसे हुए
मुहावरे
हर परिस्थिति में
खरे ही उतरते हैं
तो
अपेक्षा क्यूँ?
शिकायत क्यूँ?
बगावत क्यूँ?,..
तब करती हूँ
फिर से संकल्प
अग्निशिखा सा ही रहना है
मेरा जीवन
तो ज्वाला नहीं
बल्कि
बनकर रहूँगी हमेशा
तुम्हारे जीवन की
'दीपशिखा',..
जिससे उठती लौ
लपट बनकर कुछ भस्म नहीं करेगी
बल्कि
उर्ध्वगामी होकर करेगी रोशन
हमारे आशियाने को
जिसमें हमारा प्रेमदीप होगा
एक कोने में
जिसके तले अंधेरों का साया
कभी हमारे अपनों पर नहीं पड़ेगा।
अब तुम्ही तय करो
क्योंकि
जलो न सही
तपते तो तुम भी हो
मेरे जलने के ताप से
फिर
हमारे बीच ये सामंजस्य
सचमुच प्रेम ही है न???
बोलो न,....!!!
प्रीति सुराना
बहुत बढ़िया
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