Wednesday 11 July 2018

वापसी निराशा के गर्त से

हाँ!
अकसर मैं कह देती हूँ
मर जाऊँगी
खत्म कर दूंगी सब कुछ
अचानक उठाने लगती हूँ
उलटे सीधे कदम
फिर सुबकती हूँ, घुटती हूँ, चीखती हूँ, तरसती हूँ,
जिंदगी एक ही पल में
एक चलचित्र सी निकलती है
आँखों के सामने से,...

याद आती है
एक-एक चोट,
एक-एक टीस,
एक-एक घाव,
जिसमें से
कुछ सूखकर निशान छोड़ गए,
कुछ को लोगों ने इतना संभाला
कि हमेशा हरे ही रहे,
कुछ को कुरेद-कुरेद कर
नासूर कर डाला,...

तभी
क्या-क्या खोया
ये याद आते-आते
एक पल
सिर्फ एक पल
क्या-क्या पाया पर मन ठहरता है
कर्तव्य के साथ अधिकार
गम के साथ खुशियाँ
उपेक्षा के साथ अपेक्षाएं
उंगलियों में गिने जा सकने वाले अपने,...

और
अपनों की खातिर बुने सपने
अतीत की कड़ियाँ
वर्तमान की सीढियाँ
भविष्य का आकाश
और आकाश में अपना ध्रुव तारा
लौट आती हूँ
उस गहनतम निराशा के गर्त से
जो लील जाता
मेरे ही अपनों का भविष्य मेरे  बाद,..

झकझोरती हूँ तब
फिर से खुद को
कहती हूँ खुद से
तू कायर नहीं
जो मर जाए बेमौत
तूने परिस्थितियों से भागना नहीं सीखा
उठ, लड़ अपनों से नहीं
अपने आप से
जा भाग परिस्थितियों से नहीं,
जिम्मेदारियों और सपनों की खातिर,..

तभी अचानक
रुक जाती है
मन के भीतर की बेमौसम उठी आंधी,
ठहर जाते हैं विचारों के झंझावात,
तूफान थमने के पहले सब कुछ बिखेर जाता है,...
पर तब एक और खयाल आता है
मेरे पास समेटने के लिए कुछ तो है,
चाहे बिखरा ही सहीं
उनका क्या जो जीते है
अकेले निर्जन वीरान अहम के टापुओं पर,...

सुनो!!!
लाख कह दूँ सबसे
पर सनद रहे
आत्महत्या करने की
कायरता के लिए
बहुत हिम्मत चाहिए
जो मुझमे नहीं है,..
इसलिए लौट आती हूँ
वापस
जिन्दगी के थोड़ा और करीब,...

शुक्रिया!!!
मेरे अपनो
कि करते हो प्रतीक्षा
मेरे संभलने की
इस अडिग विश्वास के साथ
कि कायरता मेरा मौलिक गुण नहीं,...
मैं अपनी नम पलकों के साथ भी
अपनों के लबों पर
प्रीत की मुस्कान
बांटने का हुनर रखती हूँ,....

प्रीति सुराना

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