Saturday, 3 March 2018

अब नहीं होता बर्दाश्त,...

सुनो!
मत देना मुझे तुम
कभी भी
पीछे से आवाज़
जाना चाहती हूँ
किसी ऐसी जगह
जहाँ से लौटकर
आना न पड़े
जहाँ चीख कर रो सकूँ
पर मेरा रुदन मेरी चीख
कोई न सुन सके,...

क्योंकि
सुनकर अनसुना किया जाना
समझकर न समझा जाना
और भीड़ में भी तन्हा ही रह जाना
और मुझे अकेला छोड़कर भी
किसी को अहसास तक न होना
मेरे हालात का जिम्मेदार
सिर्फ और सिर्फ
मुझे ठहराया जाना
अब नहीं होता बर्दाश्त,...

जब
यह तीव्र वेदना
सहनी ही है
हर हाल में
मुझे अकेले ही
तो क्यों बताऊँ तुम्हें
अपनी पीड़ा
हाँ! तुम ही हो हिम्मत मेरी
पर नहीं चाहती
तुम जान पाओ
मेरी कमजोरी भी हो 'सिर्फ तुम'

प्रीति सुराना

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