अंधेरों का अवगुंठन
न शक्ल-न अक्ल, न संगी-न साथी, न जानकारी-न अनुभव, न सहयोग-न मार्गदर्शन, न धन-न साधन, यानि सफलता के लिए जरूरी सारे मार्ग अंधेरों से भरे।
शुभ्रा अवसाद से घिरती जा रही थी। अचानक उसने खुद को झकझोरा और कहा- 'तुम कमजोर नहीं हो शुभ्रा' और अपने हौसले, आत्मनिष्ठा, सपने, चाहतें, लक्ष्य, आशा, समर्पण और स्वाभिमान से आच्छादित करते हुए दृढ़संकल्प के धागे में पिरो लिया।
उसके आंतरिक मौलिक गुण बाहरी भौतिक आडंबरों को हराने में सफल हुए। आज महामहिम राष्ट्रपति के हाथों उत्कृष्ट गायन के लिए सम्मानित होते हुए उसने अपने आसपास उपस्थित तथाकथित अपनों के सारे मिथक तोड़ दिए।
लौटकर आई तो घर के सामने अनगिनत जाने पहचाने चेहरे जो अक्सर कोसते हुए नज़र आते थे आज हाथ में स्वागत हार लिए खड़े थे। आंखों में नमी के साथ मुस्कुराती हुई सबसे मिली पर मन में इस संतोष के साथ कि आखिर उसने *अंधेरों का अवगुंठन* सीख ही लिया।
प्रीति सुराना
http://bulletinofblog.blogspot.com/2018/03/blog-post_25.html
ReplyDeleteअत्यंत सारगर्भित ।
ReplyDeleteप्रेरक प्रस्तुति
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ReplyDeleteआपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 28मार्च 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteवाह!!बहुत खूब ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रेरक प्रसंग | सचमुच सुन्दरता ने इंसान को सिर्फ भरमाया है और गुणों ने हमेशा अपना परचम ऊँचे लहराया है | सादर ---
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रेरणादायक प्रस्तुति...
ReplyDeleteवाह!!!