Tuesday, 13 March 2018

सुनहरी धूप

'संध्या तुम गुलाबी साड़ी पहनकर जाना तुम पर जँचती है'
'पर माँ सुधीर को तो फिरोज़ी रंग पसंद है'
'अरे! लड़कों का क्या वो तो कहकर भूल जाते हैं, पति को उसकी पसंद से ज्यादा सुंदर दिखने का खयाल रखना पड़ता है।'
     और सुन! माँ हूँ तेरी इसलिए समझा रही हूँ। ससुराल वालों के कहने में आकर अभी से परिवार न बढ़ा लेना ये समय पति पर अपना अधिकार जमाने का है अभी से बस में कर लिया तो जिंदगी भर सुखी रहेगी।
रोज सुबह कमरे से बाहर निकलने के पहले संध्या माँ से बात जरूर करती पर दबी दबी सी आवाज़ में पर जाने अनजाने ये बातें सुधीर के कानों में भी पड़ ही जाती थी।
अच्छी बात यह थी कि ये सब सुनकर भी संध्या सुधीर को मान देना न भूलती और सुधीर भी सब अनसुना करके सामान्य बना रहता।
एक शाम दोनों रात का खाना खाने बाहर गए। अचानक सुधीर ने संध्या का हाथ थाम कर पूछा 'संध्या तुम खुश हो मेरे साथ?'
जवाब का इंतज़ार किये बिना ही आगे बोल पड़ा 'तुम हर रंग और लिबास में मुझे अच्छी लगती हो क्योंकि तुम मेरी पसंद हो, हम अपने भविष्य के निर्णय मिलकर लेंगे और एक दूसरे के सहमति और पूर्ण समर्पण के साथ।'
संध्या की नज़रें झुक गई । सुधीर ने प्यार से उसका चेहरा ऊपर करते हुए कहा 'तुम्हारी कोई गलती नहीं, मैं समझता हूँ वो तुम्हारी माँ है और तुम्हारा हित चाहती हैं।' मैं उनका और तुम्हारे पूरे परिवार का सम्मान करता हूँ और बदले में सिर्फ अपने परिवार के लिए यही अपेक्षा तुमसे भी करता हूँ।
आज ये हम दोनों को तय करना है कि हमारे लिए अपनों का प्यार और सम्मान जरूरी है या उनका 'हस्तक्षेप'।
संध्या की आंखों से अविरल आँसू निकलते रहे और सुधीर के लिए मन में सम्मान कई गुना बढ़ गया।
अगली सुबह जब माँ का फोन आया तो संध्या ने दबी आवाज़ में बात नहीं कि बल्कि खुलकर माँ से कहा कि 'माँ अब आप ये सब बातें छोड़ो न मैं बहुत खुश हूँ, सुधीर मेरा बहुत खयाल रखते हैं। आप बस अपनी और पापा की सेहत का खयाल रखिये।'
आज की सुबह अपनों ने नहीं सपनों ने जीवन मे *दखल* दिया और संध्या के आंगन में सुनहरी धूप खिलने लगी।

प्रीति सुराना

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