मित्रों,
'नमन'
है भव्य भारत ही हमारी मातृभूमि हरी-भरी,
हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा और लिपि है नागरी।
हम राष्ट्रीय जीवन के यथार्थ में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की यह घोषणा 1949 से लेकर आज तक यानि लगभग पूर्ण होती पूरी एक शताब्दी में भी साकार नहीं कर पाए।
लार्ड मैकाले का मानना था कि जब तक संस्कृति और भाषा के स्तर पर गुलाम नहीं बनाया जाएगा, भारतवर्ष को हमेशा के लिए या पूरी तरह, गुलाम बनाना संभव नहीं होगा।
जबकि गांधी जी ने स्वाधीनता संग्राम छेड़ने के बाद अपने अनुभवों से यह समझा और माना कि स्वाधीनता संग्राम को पूरे देश में एक साथ आगे बढ़ाया जा सकता है, तो केवल हिंदी भाषा में, क्योंकि हिंदी कई शताब्दियों से भारत की संपर्क भाषा चली आ रही थी।
आज भी पूरे विश्व में एक भी ऐसा राष्ट्र नहीं है, जहाँ विदेशी भाषा को शासन की भाषा बताया गया हो, सिवाय भारतवर्ष के। हज़ारों वर्षों की सांस्कृतिक भाषिक परंपरावाला भारतवर्ष आज भी भाषा में गुलाम है और आगे इससे भी बड़े पैमाने पर गुलाम बनना है। यह कोई सामान्य परिदृष्टि नहीं है।
भाषा में गुलामी के कारण पूरे देश में कोई राष्ट्रीय तेजस्विता नहीं है और देश के सारे मूर्धन्य चिंतक और विचारक विदेशी भाषा में शासन के प्रति मौन है। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा के सवालों को जैसे एक गहरे कोहरे में ढँक दिया गया है । राष्ट्रभाषा के सवाल पर राष्ट्रव्यापी बहस के कपाट जैसे सदा-सदा के लिए बंद कर दिए हैं। सारी प्रादेशिक भाषाएँ भी अपने-अपने क्षेत्रों में बहुत तेज़ी से पिछड़ती जा रही हैं। शासन की भाषा के मामले में अंतर्विरोध भी तभी पूरी तरह उजागर होंगे, जब विदेशी भाषा प्रादेशिक भाषाओं की संस्कृतियों के लिए भी ख़तरनाक सिद्ध होंगी। प्रादेशिक भाषाओं की भी वास्तविक शत्रु अंग्रेज़ी ही है, लेकिन देश के अंग्रेज़ीपरस्तों ने कुछ ऐसा वातावरण निर्मित करने में सफलता प्राप्त कर ली है जैसे भारतवर्ष की समस्त प्रादेशिक भाषाओं को केवल और केवल हिंदी से ख़तरा हो।
फिर भी आशा की एक किरण आज भी कायम है। गुरुदेव रवींद्रनाथ ने अपने एक निबंध में लिखा है, जिस हिंदी भाषा के खेत में ऐसी सुनहरी फसल फली है, वह भाषा भले ही कुछ दिन यों ही पड़ी रहे, तो भी उसकी स्वाभाविक उर्वरता नहीं मर सकती, वहाँ फिर खेती के सुदिन आएँगे और पौष मास में नवान्न उत्सव होगा।
सचमुच उसी पौष मास की आशा लिए माँ अहिल्या की नगरी इंदौर की पावन और उर्वर भूमि में आंदोलन का एक बीज रोपा है *"मातृ भाषा उन्नयन संस्थान" हिन्दीग्राम* ने।
*एक आंदोलन मातृभाषा हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने हेतु*
*भारत को भाषा के सक्षमीकरण के माध्यम पुनः विश्वगुरु बनाने हेतु*
*एक मुहिम हस्ताक्षर बदलकर हिन्दी को समृद्ध और सशक्त समर्थन देने हेतु*
*हिन्दी को व्यवहार ही नहीं व्यापार की भाषा बनाने हेतु*
*हिन्दी साहित्य को सचमुच नए भारत का दर्पण बनाने हेतु*
और इन सभी बिंदुओं पर कार्य कर रही संस्था के अंतर्गत गठित इकाईयाँ है :-
मातृभाषा.कॉम
अन्तरा-शब्दशक्ति
इन संस्थाओं के कार्य का आधार यह सोच है कि 'सृजन' एक मानसिक प्रक्रिया है जिसमें नये विचार या उपाय का जन्म होता है। वैज्ञानिक मान्यता यह है कि सृजन का फल में मौलिकता एवं सम्यकता दोनों विद्यमान होते हैं। और सृजन में क्रांति उत्पन्न करने की क्षमता भी होती है।
तो आइए सृजन की इस शक्ति को आंदोलन की शक्ति के रूप में जोड़ने के लिए जुड़ें और सहयोगी बनें।
*सम्बद्ध संस्थाएं*
हिन्दीग्राम
मातृभाषा उन्नयन संस्थान
मातृभाषा.कॉम
अन्तरा-शब्दशक्ति
*डॉ. प्रीति सुराना*
*सह संस्थापक- हिन्दीग्राम*
*राष्ट्रीय उपाध्यक्ष - मातृभाषा उन्नयन संस्थान*
*प्रबंध संपदाक- मातृभाषा. कॉम*
*संस्थापक- अन्तरा-शब्दशक्ति*
हिंदी है हम
ReplyDeleteहै हिन्दुस्तां हमारा
मुझे लगता है कि मैकाले की क्या सोच रही होगी वो आज की पीढ़ी पर असर नहीं करती।
आज की पीढ़ी अगर हिंदी और अंग्रेजी दोनों बोलती है दोनों में काम करती है तो इसमें देश को कोई नुकसान नहीं।
अंग्रेजी से हमे दुनिया मे क्या हो रहा है इसका पता चलता है
ऐसा तो नहीं कि महान विद्वान केवल हमारे देश में ही हुए है तो उनको समझने के लिए भी अंग्रेजी का सहारा चाहिए।
विदेश नीति कायम रखने के लिए इंग्लिश बहोत जरूरी है।
वरना हम कूपमण्डूक बन जाएंगे
लेकिन हिंदी को छोड़ना ओर केवल अंग्रेजी को अपनाना ये बहोत नुकसान देय है।
विचारणीय