ग़ज़ल
दरख़्त ये पीर के सूखते क्यों नहीं
सिलसिले ये बुरे टूटते क्यों नहीं
पेड़ की डाल पर डाल कर डोरियाँ
गोरियों के कदम कूदते क्यों नहीं
कोयलों ने बनाए यहां घोंसले
मौर की ठौर पर कूकते क्यों नहीं
है बड़ा सा जहां है खुशी ही खुशी
ओर से छोर तक घूमते क्यों नहीं
सरसराती हवा झुरमुटों में गुथी
ताल सुर और लय गुंजते क्यों नहीं
पूछती है रागिनी हाल जी का तुम्हें
प्रश्न जरा है कठिन बूझते क्यों नही
बेवजह उलझनों में उलझते रहे
आज जंजाल से छूटते क्यों नहीं
मत रखो इस तरह गरल मन में भरा
क्रोध का घूँट तुम थूकते क्यों नहीं
मामला देखकर वाक़या सुन समझ
माज़रा क्या हुआ पूछते क्यों नहीं
घाव मन पर लगे रोज ही दुख रहे
आज नासूर ये फूटते क्यों नहीं
'प्रीत' बन बरसती बदलियाँ पीर की
मौसमों का मज़ा लूटते क्यों नहीं
प्रीति सुराना
बहर 212*4
रदीफ़ : क्यों नहीं
काफिया: अते
अच्छी गजल है
ReplyDeleteमन जैसे कोई चीज को ठीक करने में लगा है लेकिन वो
नाकाम रहता हो हर बार।
उसके बाद की जो व्यथा बनती है
वो इस ग़ज़ल में उभरी है।