Monday 26 February 2018

दरख़्त ये पीर के

ग़ज़ल

दरख़्त ये पीर के सूखते क्यों नहीं
सिलसिले ये बुरे टूटते क्यों नहीं

पेड़ की डाल पर डाल कर डोरियाँ
गोरियों के कदम कूदते क्यों नहीं

कोयलों ने बनाए यहां घोंसले
मौर की ठौर पर कूकते क्यों नहीं

है बड़ा सा जहां है खुशी ही खुशी
ओर से छोर तक घूमते क्यों नहीं

सरसराती हवा झुरमुटों में गुथी
ताल सुर और लय गुंजते क्यों नहीं

पूछती है रागिनी हाल जी का तुम्हें
प्रश्न जरा है कठिन बूझते क्यों नही

बेवजह उलझनों में उलझते रहे
आज जंजाल से छूटते क्यों नहीं

मत रखो इस तरह गरल मन में भरा
क्रोध का घूँट तुम थूकते क्यों नहीं

मामला देखकर वाक़या सुन समझ
माज़रा क्या हुआ पूछते क्यों नहीं

घाव मन पर लगे रोज ही दुख रहे
आज नासूर ये फूटते क्यों नहीं

'प्रीत' बन बरसती बदलियाँ पीर की
मौसमों का मज़ा लूटते क्यों नहीं

प्रीति सुराना

बहर 212*4
रदीफ़ : क्यों नहीं
काफिया: अते

1 comment:

  1. अच्छी गजल है

    मन जैसे कोई चीज को ठीक करने में लगा है लेकिन वो
    नाकाम रहता हो हर बार।
    उसके बाद की जो व्यथा बनती है
    वो इस ग़ज़ल में उभरी है।

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