ढल रही सांझ के मानिंद
मंद पड़ती जाती है
मेरी उम्मीदों के चिरागों की लौ,..
और ठीक तभी
दूर ही सही
तुम्हारी मौजूदगी
महसूस होती है
रात के अंधेरे में
बादलों की मचान पर छुपे
चाँद की तरह,
जो निकले या न निकले
अमावस को
पर हर पूर्णिमा को निकलेगा ही,...
और
सुबह जब भी सूरज आएगा
रोशनी के बाद भी
अंधेरों के फिर आने के
डर को परे धकेलकर
मेरे चाँद के हमेशा साथ होने का यकीन
जिंदा रखेगा
मेरी उम्मीदों के चिरागों को,...
हाँ !
मेरी जिंदगी में रोशनी का अर्थ
सिर्फ तुम हो
सूरज की तरह तप्त रोशनी नहीं
तुम्हारे साथ कि स्निग्ध शीतलता
रखती है मुझमें
जिन्दा रहने का हौसला,
अमावस से पूर्णिमा तक,...
सुनो!!!
ग्रहण के अपवाद में भी
कायम रखोगे न
विश्वास मेरा,.... प्रीति सुराना
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