Thursday, 9 November 2017

'असुरक्षा का भय'

एक साया सा
अकसर मंडराता है मेरे आसपास
डर का,..
तुम्हें कहने से कतराने लगी हूँ
क्योंकि कहते ही तुम्हारा सवाल होता है
मुझपर से भरोसा कम हो गया??

पर सच कहूं
तुम पर अडिग विश्वास ने ही
प्राण फूंके हैं मेरे सपनों की अदृश्य दुनिया में
जिसमें हर पल को जीया मैंने
अपने रूह के उस हिस्से के साथ
जिसे मैंने नाम दिया था सुनो!

आज उस अदृश्य प्रेम के समक्ष
नतमस्तक हूँ जिसने
तुम्हारे रूप में
साकार होकर हौसला जगाया
हाथ थामकर फिर चलना सिखाया
मेरे सपनों को आंखों से चुनकर
मेरे सामने लक्ष्य के रूप में स्थापित कर दिया,...

हां!
मैं दूँगी अपना शतप्रतिशत अपने लक्ष्य को,..
खड़ी होकर दिखाउंगी खुद अपने पैरों पर
सामना करूँगी धैर्य से चुनौतियों का,...
वादा मैं बनूंगी सशक्त,...

पर नहीं कर सकती कठोर
मन के उस धरातल को
जिसमें रोपीं हैं
तुम्हारे प्रेम और विश्वास की जड़ें,...
रहेगा हमेशा सिंचित मन का आंगन
क्योंकि
किसी भी मौसम में
प्रेम और विश्वास का बिरवां
नहीं होना चाहिए प्रभावित,..

उसके मुरझाने का डर
जगाता है मुझमें
असुरक्षा का भय
और तुम्हें न खोने का दृढ़निश्चय
मुझे करता है
और भी सतर्क
और
संवेदनशील तुम्हारे लिए,...

सुनो!
कभी भी
कहीं भी
किसी भी परिस्थिति में
मत छोड़ना मेरा हाथ
रहना हरदम साथ,..
रहोगे न???

प्रीति सुराना

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