दादी माँ अनपढ़ थी। दादा जी सेना में थे। बुआ के बाद पापा ने जन्म लिया और ठीक उसी समय सीमा पर युद्ध शुरू हो गया। दादाजी की हिम्मत नही हुई कि दादी से नज़र मिलाकर कहकर इस अवस्था में अकेला छोड़ जाते। उन्होंने एक पत्र दादी के सिरहाने रखा जिसमें मां के फ़र्ज़ और भारत माँ के प्रति अपनी निष्ठा के बारे में लिखकर चले गए।
दादी माँ को अगला पत्र सेना से मिला। दादाजी के अंतिम दर्शन से वंचित अनपढ़ दादी ने वो पत्र कभी किसी से पढ़वाये ही नहीं।
सालों निर्विकार भाव से अपने बच्चों की सुसंस्कारित परवरिश की। पैसों के अभाव में और पिछड़ी मानसिकता के माहौल में बुआ भी शिक्षा से वंचित रही। पापा को जैसे तैसे दादी और बुआ ने बीएड करवाकर शिक्षक बनाया।
जीवन चलता रहा। बुआ के बाद पापा की शादी हो गई। भैय्या के बाद मुनिया का जन्म हुआ। मुनिया के जन्म लेते ही पहली बार दादी ने पापा से कुछ मांगा "रतन मेरी एक इच्छा पूरी करेगा, हमारी मुनिया पढ़ेगी।" पापा की अश्रुपूरित हामी ये सब कुछ मुनिया को बचपन से कहानी की तरह न जाने कितनी बार सुनाया गया।
आज मुनिया ने चिकित्सा के क्षेत्र में स्त्री विशेषज्ञ की उपाधि प्राप्त की सीधे गावँ पहुंची दादी माँ के चरण छूने।
आज दादी माँ के सब्र का बांध टूटा। मुनिया को गले लगाकर खूब रोई और दो पत्र जो कभी खोले ही नहीं गए धरोहर की तरह लाकर मुनिया के हाथ में रख दिये।
कितना प्रेम, कितना समर्पण, कितना परस्पर विश्वास कि बिन कहे सुने एक दूसरे की भावनाओं का मान रखा दोनों ने।
मुनिया के मुख से 'दादी मां' के संबोधन के सिवा कुछ नही निकला,....
दादाजी के पत्र को धरोहर ही नहीं माना बल्कि स्त्री शिक्षा अभियान का पर्याय है आज मुनिया की पाठशाला जिसका नाम है 'धरोहर'।
डॉ.प्रीति समकित सुराना
07/11/2017
0 comments:
Post a Comment