Friday, 27 October 2017

याद आते हो अनायास

अंधेरों को दूर करते
अनवरत जलते कंदील को देखकर
सहसा मन उद्वेलित से होता है
कैसे सहता होगा ताप
कांच
अंधेरे और रोशनी के बीच
दीवार बनकर
फिर
याद आते हो अनायास
"तुम"
मेरे और दर्द के बीच
दीवार बने
जो पहुंचने ही नही देते
तपिश
जो तुम खुद सहते हो
मुझे शीतलता पहुंचाने के लिए,..
सुनो!
कभी मेरी भी मान लिया करो
मैं सह लूँगी आंच
दुखों की
जो तुम साथ हो,...
फिर
क्यूं
उठाते हो अकेले हर जोखिम
मुझे साथ ले लो
जलेंगे साथ तेल और बाती बनकर
करेंगे रोशन जहां सारा
भले ही जलना पड़े
अपने लिए न सही
अपनों के सुख के लिए
पर दूर नहीं साथ तो होंगे,..
प्रीति सुराना

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