*इतिहास*
इसकी बातें उससे कर
उसकी बातें उससे कर
सबके मन की जानकर
फूट डाल और राज कर,
इतिहास गवाह है
ये नीति हमारे संस्कारों में नहीं
पर प्रथा बना ली है हम सबने,..
विदेशों से अब
समान ही नहीं संस्कार भी होते हैं
आयातित
दुखद,.
इन सब से हो रहे
आतंकित, व्यथित और कुंठित,
मानसिकता, रिश्ते, समाज, संस्कार और व्यवहार,..
काश !
हम बचा पाते
भावनात्मक, आत्मीय,समर्पित और विश्वसनीयता की धरोहर के कुछ अंश
तो सह पाता
मानव नई सभ्यता से मिलने वाले दंश
और तब शायद
*इतिहास* की अच्छाइयां शेष रख पाता अपनी रगों में
आने वाला वंश,..
प्रीति सुराना
0 comments:
Post a Comment