कभी नहीं होता
बनावटीपन
मेरे प्यार में
मेरे अपनेपन में
मेरे गुस्से में
मेरी ज़िद में,..
सच कहती हूँ
साफ कहती हूँ
जहाँ कहना मुमकिन नही
वहाँ अकसर चुप रहती हूं,
तड़प कर रोती हूँ
कभी आपा खोती हूँ,..
मैं लड़तीं हूँ अपनों से ही
हक़ से हक़ के लिए
नफरतों को मन में पाला ही नही
जिसने मान लिया
मुझे अपना प्रतिद्वंदी या दुश्मन
उसे भी दी हमेशा दुआ,..
जो है वही है कोई दिखावा नहीं
जो मन मे होता है
बस वही कहती हूँ
पर करती हूं स्वीकार
बस एक जगह होता है झूठ
वो भी सिर्फ मेरी मुस्कान के पीछे,..
मेरे अंतस का नितांत अपना
वो कोना
जिसका रीतापन
घूंट घूंट पीये हुए आंसुओ से भिगोती हूँ
सब को देखकर मुस्कुराती हूँ
और उस कोने में सुबककर रोती हूँ,..
हाँ !!!
जब जब मैं भीड़ में भी तन्हा होती हूँ,.. प्रीति सुराना
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