Thursday, 1 June 2017

*प्रार्थना का महत्व*


        मेरे विचार से प्रार्थना के महत्व से पहले ये सोचना जरूरी है कि प्रार्थना का अर्थ क्या?? बहुत जगह पढ़ा सुना और समझने की कोशिश की जो समझ मे आया उसे अपने शब्दों में बताने का प्रयास मात्र कर रही हूं और हमेशा की तरह पूर्व में ही कह दूं कि मेरी अल्पबुद्धि से निकले सार से आवश्यक नही सभी सहमत हों क्योंकि हर परिस्थिति का मानस पटल पर अलग अलग प्रभाव पड़ता है अतः निष्कर्ष पर तन मन धन और जन का प्रभाव भी स्वाभाविक है।
        मेरे लिए रासायनिक शब्दावली और मेरी सोच समझ के अनुसार *प्रार्थना एक उत्प्रेरक है।*
      अपनी बात का अर्थ समझाने का प्रयास करूँगी कुछ बातों और उदाहरणों से।
     अकसर लोग ईश्वर से प्रार्थना करते हैं और प्रार्थना को स्तुति, पूजा, उपासना का समानार्थी मानते हैं। शाब्दिक अर्थों में समझा जाए तो मुझे लगता है :-
*स्तुति* अर्थात गुणानुवाद चाहे ईश्वर, गुरु या किसी ऐसे व्यक्तित्व का जिसे हम श्रेष्ठ मानते हैं। जिसमें प्रशंसा, भजन, स्त्रोत, स्तवन आदि शामिल हों।
*पूजा* अर्थात सम्मान करना जिसे भाव उपहार या श्रृंगार के माध्यम से आराध्य के लिए समर्पण के रूप में भी लिया जा सकता है। यहां स्पष्ट कर दूं मेरे लिए आराध्य केवल ईश्वर नही इसका तात्पर्य समग्र दृष्टि से वो सभी जो हमसे श्रेष्ठ हैं और जिनपर हमारी आस्था हो।
*उपासना* अर्थात समीप उपस्थित होना । अपने आराध्य, प्रिय या श्रेष्ठ के कथन पर आस्था रखकर अनुकरण करते हुए उनके समीप या समकक्ष होने के लिए किया गया पुरुषार्थ।
और
*प्रार्थना* अर्थात कर्म फल प्राप्त करने के अर्थ से की गई कामना, याचना, निवेदन, अर्जी। चाहे वो ईश्वर से हो, माता पिता से हो या अधिकारी/वरिष्ठ से हो।
        शाब्दिक अर्थ से अलग आस्था एवं परंपरा के नजरिये से सोचा जाए तो प्रार्थना एक धार्मिक क्रिया है जो ब्रह्माण्ड के किसी 'महान शक्ति' से सम्बन्ध जोड़ने की कोशिश करती है। प्रार्थना व्यक्तिगत हो सकती है और सामूहिक भी। इसमें शब्दों (मंत्र, गीत आदि) का प्रयोग हो सकता है या प्रार्थना मौन भी हो सकती है।
           प्रार्थना व्यक्ति को आंतरिक संबल प्रदान करती है, उसे कर्म की ओर उद्यत करती है। प्रार्थना व्यक्ति के विचारों एवं इच्छाओं को सकारात्मक बनाकर निराशा एवं नकारात्मक भावों को नष्ट करती है। प्रार्थना हमें विनम्र और विनयी बनाती है, जो कि हर व्यक्ति के स्वभाव की आवश्यकता है।  प्रार्थना हमें अपने मन-मस्तिष्क को एकाग्र करने का अभ्यास कराती है, जिससे आप अपनी मंजिल पा सकें, आपने जो चुनौती स्वीकार की है, कार्य हेतु जो संकल्प किया है उसमें आप सफल हो सकें। कहीं पढ़ा था *सच्ची भावना से की गई प्रार्थना एवं निष्ठापूर्वक किया गया कर्म सफलता की गारंटी है।*
      प्रार्थना करने से मनुष्य भाग्यवादी कभी नहीं बनता। यदि ऐसा होता तो सभी धर्मों के लोग प्रार्थना करना बंद कर देते या सभी धर्म प्रार्थना के महत्व को नकार देते।
*प्रार्थना के संबंध में आदि शक्ति ने कहा है:-* प्रार्थना निवेदन करके उर्जा प्राप्त करने की शक्ति है और अपने इष्ट अथवा विद्या के प्रधान देव से सीधा संवाद है। प्रार्थना लौकिक व अलौकिक समस्या का समाधान है।
*प्रार्थना के संबंध में एल. क्राफार्ड ने कहा था:-* ‘‘प्रार्थना परिष्कार एवं परिमार्जन की उत्तम प्रक्रिया है।’’
*महात्मा गांधी कहते थे:-* 'प्रार्थना धर्म का निचोड़ है। प्रार्थना याचना नहीं है, यह तो आत्मा की पुकार है। यह आत्मशुद्धि का आह्वान है। प्रार्थना हमारे भीतर विनम्रता को निमंत्रण देती है।' यदि मनुष्य के व्यक्तित्व के आभूषण शांति, विनम्रता और सहनशीलता हैं तो उनका मूल प्रार्थना में छिपा है। यदि मनुष्य के व्यक्तित्व के अनिवार्य तत्व कर्मठता, लगन और परिश्रम हैं तो वे उसकी सफलता के मूलाधार हैं। दोनों का अपना-अपना महत्व है। आपको अपनी आवश्यकतानुसार चुनाव करना है कि आपके लिए क्या आवश्यक है।
          मुझे तो यही समझ मे आता है कि प्रार्थना के मूल में यही भाव है कि कर्म तो व्यक्ति को करना ही होगा, किंतु उसके द्वारा किया गया कर्म कभी निष्फल नहीं जाएगा, उसे यथेष्ट फल मिलेगा ही। उस कर्म हेतु प्रेरणा एवं उत्साह उसे प्रार्थना से मिलेगा।
             *गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने प्रार्थना के इसी महत्व का प्रतिपादन किया है:-* कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। अर्थात तेरा कर्म में ही विश्वास हो, फल की इच्छा में नहीं। क्योंकि तेरे द्वारा जो भी कर्म किया जाएगा, उसका फल तुझे अवश्य मिलेगा। अत: तेरी कर्म में ही प्रीति हो, फल में नहीं। यहां कहने का आशय यही है कि व्यक्ति अपना समय, अपनी ऊर्जा, अपनी एकाग्रता और अपनी अर्जित शक्ति को एकत्रित कर निर्धारित कर्म हेतु उद्योगरत रहे, फल की कामना रहने से अपने मन को कुंठित एवं व्यग्र न करे। ऐसा करने से किया गया कर्म फलदायी होता है।
          *मानस में भी गोस्वामी जी ने कर्म की ही महत्ता को स्पष्ट करते हुए कहा है:-*
सकल पदारथ यही जग माहीं।
कर्महीन नर पावत नाहीं।।
         भारतीय संस्कृति मानव को ईश्वर की ओर उन्मुख होने का संदेश देती है, किंतु उसे कर्महीन अथवा भाग्यवादी नहीं बनाती।
         *ज्योतिष शास्त्र में भी यही कथन है:-* 'कर्म से भाग्य बदलता है।'
       *भृगु संहिता के अनुसार:-* हमारी भाग्य रेखाएं एक समय के पश्चात स्वयमेव बदलने लगती हैं। उन रेखाओं के बदलने के पीछे कर्म का हाथ होता है।
        *मेरा विवेक कहता है:-* कर्म का स्थान प्रार्थना नहीं ले सकती, प्रार्थना का स्थान कर्म नहीं ले सकता।
*क्योंकि यदि ऐसा होता तो:-*
डॉक्टर ऑपरेशन से पूर्व प्रार्थना से ही काम चल लेता या विद्यार्थी परीक्षा में पढ़ाई करने की बजाय केवल प्रार्थना करता।
एक कैंसर का मरीज़ अपनी जिजीविषा को बढ़ाने या रोग से लड़ने की क्षमता दवाइयों या उपचार की बजाए ईश्वर के सन्मुख बैठकर प्रार्थना में ही समय व्यतीत करता।
भीड़भाड़ वाली सड़क के पार जाने के लिए प्रार्थना नही पुरुषार्थ ही प्रेरक होता है, और उस वक़्त मन में चल रही प्रार्थना उत्प्रेरक का कार्य करती है।
कभी रास्ते मे गाड़ी खराब हो जाए और धक्का  लगाने की जरूरत हो तो आप ड्राइविंग सीट छोड़कर धक्का नही लगाएंगे बल्कि आसपास के लोग ही सहायक होंगे। इन लोगों को ही प्रार्थना मान लिया जाए जो गाड़ी को चालू करने में सहायक बने लेकिन ड्राइविंग का कर्म खुद को ही करना होता है।
         जितना सच ये है कि आज हम जहां हैं, जिस मुकाम पर हैं जो भी पाया या खोया वो सब कुछ हमारे ही कर्मों का परिणाम है उतना ही सच ये है हमारी संस्कृति और परंपरा ने हमें प्रार्थना से जोड़ा जिसने हर कमजोर पल में हिम्मत बढ़ाई, कर्म करने को प्रेरित किया, परिस्थितियों से लड़ने का साहस दिया, सही राह चुनने में विवेक जागृत किया तो वो है प्रार्थना।
इसीलिए
*मेरे लिए प्रार्थना वो उत्प्रेरक है जो मुझे हर विषम परिस्थिति से बाहर निकलने की प्रेरणा देता है या विपरीत परिणामों को सहन करने की क्षमता बढ़ाता है लेकिन मुझे कर्म से विमुख कभी भी नही करता।*
        एक बार पुनः निवेदन ये मेरी व्यक्तिगत सोच है जिससे सहमति के लिए आभार और असहमति के लिए *आप सभी से प्रार्थना* इसे मात्र एक अभिव्यक्ति समझें क्योंकि सभी सोच का एक हो पाना कतई संभव नही है।

प्रीति सुराना

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