Thursday, 9 February 2017

अकेलापन

अकेलापन
         अपने घर में कोने में धूल खाती ट्रॉफियों और सेल्फ में रखी किताबों को टकटकी लगाए मुकेश जाने कब तक देखता रहता।
               पत्नी ऑफिस और बच्चे स्कूल चले जाते। उसका काम सेल्स मैनेजर का था। हफ्ते में दो तीन दिन मार्केटिंग के लिए बाहर जाना होता शेष सभी काम घर बैठे ही हो जाते थे। खाली समय में अपने शौक को ही साथी और संतुष्टि का माध्यम बना लिया था उसने।
बीते सालों में कितना कुछ लिख डाला। कितनी जगह प्रकाशित हुआ, और धीरे धीरे साहित्य जगत का स्थापित व्यक्तित्व बन गया। अकेलेपन को दूर करने के लिए लेखन से जुड़ाव ने अनेक लोगों से भावनात्मक जुड़ाव बढ़ा दिया था।
          नाम, इज्जत, पहचान सबकुछ मिला लेकिन धीरे धीरे जिस परिवार के पास उसके लिए वक़्त नहीं था उसी परिवार को लेखन से बढ़ी व्यस्तता से शिकायत रहने लगी। पूरा दिन अकेलेपन से जूझते मुकेश के साहित्यिक मित्रों की भीड़ ही अब परिवार में तनाव का कारण बनने लगी।
         एक चमकता हुआ सितारा अपने ही घर में सुकून की एक रात को तरसने लगा। कुछ समय बाद वो डिप्रेशन का शिकार होने लगा। अंततः अपनी धूमिल होती छवि को बचाने के लिए एक दिन सब की अनुपस्थिति में अपनी ही लिखी किताबों को शहर के बड़े पुस्तकालय में दे आया। सम्मान पत्रों और ट्रॉफियों को एक संदूक में रखकर ताला लगा दिया।
             घर वालों की शिकायतें तब भी दूर नहीं हुई। अब उसके इस कदम से घर के ही लोग उसे मनोरोगी कहने लगे।
          अब मुकेश अपने ही एकांत में अब ये सोचता रहता है कि उसने लेखन से जुड़कर सही किया था या लेखन से दूर होकर क्योंकि परिवार की नज़र में तो दोनों ही परिस्थितियों में वह मनोरोगी ही बना रहा। किसी ने भी उसके अकेलेपन की परवाह नहीं की। उसे इस सवाल का जवाब कभी नहीं मिला की सही क्या गलत क्या?

प्रीति सुराना

1 comment:

  1. Bahut ytharth likha hai .....
    Waaaah !!!!!
    Satik .......gadya me bhi bahut achchha likhati hain aap.

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