Sunday 19 February 2017

सम्मान का औचित्य

फेसबुक का पेज है मेरा कीपैड चालू है कितने पन्ने पलटे, कितनी पोस्ट पढ़ी, कितनों की दीवार पर झांक आई, कितनो की बातें पढ़ी। कुल मिलाकर 5 साल पहले जब फेसबुक पर नई नई आई थी और मुझे फ़ेसबुकिया रचनाकार का तमगा मिला था तब से आज तक कई मुकाम आए जीवन में चाहे सो वास्तविक जीवन में हो या आभासी जीवन में।
       आज जिंदगी को कई तरीके से तोड़ मरोड़ कर देखती हूँ हर पहलू से हर दृष्टिकोण से चाहे सकारात्मक या नकारात्मक। आज कल एक विशेष मानसिकता खुद में महसूस करती हूँ , फेसबुक हो व्हाट्सप हो या अन्य कोई भी सोशल साइट, एक नुक्कड़ से लेकर पांचसितारा स्तर का हर विषय, हर जानकारी, हर तरह के समारोहों के चित्र या यूँ कहूँ पूरा जीवन एक चलचित्र की तरह ही यहाँ दिखता है, खेल, राजनीति हो या फ़िल्मी दुनिया की बातें और तो और सोसाइटी में होने वाले छोटे छोटे कार्यक्रम ही नहीं बल्कि किटी पार्टी तक की ख़बरें भी देखते पढ़ते ही नहीं सुनते भी हैं। डायरियों के पन्नों में कैद सपनों को एक सुनहरा मंच मिला सोशल नेटवर्क के माध्यम से। सिर्फ लोगों को नहीं मुझे भी।
        चलिये आज किटी पार्टी की बात निकली है तो एक बात साझा करती हूँ। मेरे छोटे से गाँव में जिसकी जनसँख्या बीस पच्चीस हज़ार की होगी  । हर मोहल्ले में अलग अलग किटी ग्रुप बने हुए हैं बिलकुल वैसे ही जैसे व्हाट्सअप ग्रुप्स। आए दिन कोई न कोई किसी न किसी किटी ग्रुप से जुड़ने का प्रस्ताव लेकर आता है। एक दिन मैंने अपने ही मोहल्ले की एक ग्रुप के साथ बैठी थी, बातों ही बातों में पता चला इस किटी में 20 महिलाएं हैं। हर महिला किसी एक महिला को 2000 /- देती है इस तरह एक महिला को एक महीने में एक साथ उसके 2000 सहित 40000/- मिलते हैं। जिसे रुपये मिलते हैं उसके घर पार्टी होती है, सास-बहु, पति-पत्नि, पड़ोसी,  बच्चों और फ़िल्मी गॉसिप के साथ गेम्स और मस्ती भी। यानि अच्छी व्यवस्था की जाए या किसी थीम पर पार्टी रखी जाए तो 5000 तक का खर्च आयोजक करता है। यानि देखा जाए तो हर महीने जिस जगह जाना है वहां की थीम पर हर महिला खुद भी तैयारी करती है तो कुछ खर्च 2000 के अतिरिक्त भी करती है। यानि ऐसी किटी को कोई भी आर्थिक लाभ नहीं सिवाय इसके कि एक मुश्त रूपये हाथ में हो तो अच्छी सी शॉपिंग, सेविंग या कोई आकस्मिक आया जरुरी कार्य निबटाया जा सकता है। बीस की बीस महिलाओं ने कहा हम केवल रोज की दिनचर्या से बोर होने से बचने के लिए जुड़े हैं, उकताहट से परे थोड़ी मस्ती थोड़ा मज़ा, पैसे तो खर्च होते ही हैं अगर आप मनोरंजन चाहते हैं और इसमें बुराई भी क्या है? और मैं भी पूरी तरह सहमत हूं, पैसा उनका, रूचि उनकी, समय उनका, सहमति उनके परिवार की फिर दूसरों को आपत्ति क्यूं जबकि आजकल इन ग्रुप्स के जरिये चैरिटी और सांस्कृतिक सामाजिक गतिविधियों को भी बढ़ावा मिला है, यानि कुछ न करने से बेहतर है कुछ तो कर रहे ये लोग, सबकुछ सरकार ही क्यों करे, कुछ समाज भी करे, और समाज क्या है हम ही तो हैं, हम अपनी खुशी के लिए तरीके बदलते हैं तो बुराई क्या है?
      हम खुश होंगे तभी तो खुशबू की तरह खुशी फैलेगी। मेरे एक मित्र कहते हैं उदासी संक्रामक होती है तो मेरे यारा ख़ुशी का वायरस भी उतनी ही तेज़ी से फैलता है, बस मुश्किल ये है कि कुछ लोग अपनी लीक पर अटके रहकर इस परिवर्तन के वायरस को मिटाने के वैक्सीन बनाने में ही पूरी जिंदगी बिता देते हैं।
     मैं केवल गौ सेवी संस्थाओं या धार्मिक सामाजिक संस्थाओं से ही नहीं मोहल्ले की महिला मंडली से भी ताल्लुक रखती हूं पर इन दिनों अपनी रूचि के क्षेत्र लेखन से जुडी हूँ। पहले भी कई बार बताया मेरी शारीरिक व्याधियों के चलते सोशल नेट से जुडी और परिवार की प्रेरणा से लेखन फिर शुरू किया। इन दिनों खूब सुना खूब पढ़ा कि अमुक  व्हाट्सप ग्रुप का साझा संग्रह निकल रहा है, 500 से 5000 तक अलग अलग कई तरह के समारोह और विमोचन, लेखन की सक्रियता और साथ में मिलने वाला मानसम्मान जो हमारी प्रोफाइल में एक एक कर उपलब्धियों में जुड़ता चला जाता है।
       कुछ लोगों का कहना है ये सम्मान कोई मायने नहीं रखते क्योंकि गैर सरकारी संस्थाओं और आपकी व्यक्तिगत कमेटी से दिए जाते हैं, जिसके लिए आप खुद अपनी आर्थिक हिस्सेदारी भी देते हैं। उन लोगों ने कभी ये सोचा की जो कला सालों दबी छुपी रही उसे एक मंच मिला, मंच से सम्मान मिला और सम्मान से और बेहतर करने की प्रेरणा मिली जो उसके परिवार या मोहल्ले या समाज की बजाय सोशल नेटवर्क से बने समूह जिसे लोग परिवार मानने लगते हैं उनसे मिलते हैं तो बुराई क्या है?
      कुछ लोगों का मानना है कि प्रकाशकों ने इसे व्यापार बना लिया हैं। इस पर मेरा एक सवाल क्योंकि मैं प्रकाशक नहीं केवल लेखन और संपादन का कार्य करती हूँ वो भी पूर्णतः निःशुल्क। क्या प्रकाशक आपके पास आकर रचना के लिए पैसे ले जाता है या रचनाएं आपकी अनुमति के बिना छापकर फिर पैसे मांगता है। यदि ऐसा है तो बिलकुल विरोध करें। लेकिन यदि आपने अपनी खुशी के लिए प्रकाशित होने और फिर सम्मानित होने के लिए साझेदारी दी है या सहयोग राशि दी है तो प्रकाशक के लाभ हानि उसके व्यापार से जुड़े हैं तो वह अगर कमाता है तो गलत क्या?  आपने नाम कमाया उसने दाम, लेकिन आपत्ति किसी तीसरे को क्यों?
        यदि आपको ये गलत लगता है तो आप न जुड़ें। लेकिन जिसे जुड़ना है उसकी खुशियों को सरे बाज़ार रुसवा मत कीजिये। क्योंकि सब इतने काबिल नहीं होते कि सरकार उसे बुलाकर 'भारत रत्न' से नवाज़े । हम तो वो इमोशनल बुध्दु हैं जो क्लास ने में 100 मीटर की रेस में मिला शील्ड भी आज तक संभाल कर रखते हैं और आज जब चलने में दिक्कत है तब उस दौड़ को याद करके खुश हो लेते हैं।  बेटी को लतामंगेशकर नहीं बना पाते लेकिन सुरीली आवाज सुनकर खुश होते हैं, हर बच्चा धोनी सचिन या कपिल नहीं होता लेकिन उसके हुनर को भी दाद मिले तो वो खुश भी होता है और प्रेरित भी। सभी अमिताभ की तरह आल राउंडर नहीं होते लेकिन सभी अपने घर के आल इन वन जरूर होते हैं।
       एक और वक्तव्य बार बार सुनने पढ़ने को मिला इन दिनों कि लोग पैसे देकर सम्मान करवाते हैं। साहित्य और सम्मान भी व्यापार बन गया है। सिर्फ और सिर्फ एक बात कहूँगी जिस समाज में देह का, भावनाओं और मानवीय संवेदनाओं का और जमीर का व्यापार होता हो वहां इस तरह के सवालों का कोई औचित्य है ही नहीं।
         मैंने जो कहा उसका किसी भी तन मन धन और जन से सीधा संबंध नहीं पर साधा हो सकता है और ये मेरे व्यक्तिगत और पूर्णतः मौलिक विचार हैं। और विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति जागरूक रहते हुए सभी की स्वीकृति के पूर्वाग्रहों से मुक्त रहकर समाज सुधारकों से मेरा एक और निवेदन छोटे मोटे रचनाकारों को इसे एक पारिवारिक उत्सव की तरह सेलिब्रेट करने दें, छोटे छोटे खुश होने के मौके अगर मिलते हैं तो बड़े सपने देखने की हिम्मत कर सकें शायद। और शायद एक दिन इनमें से कोई ऐसा आगे निकालकर आ जाए जिसका गैरसरकारी या साझेदारी वाला नहीं बल्कि आप खुद बुलाकर देश की तरफ से सम्मान करें। तो बस इतना ही,...

मत रोकिये बढ़ते क़दमों को
आँखों में पलते सपनों को
खुशियों में खुश होना सीखे
बढ़ता देखकर अपनों को,... प्रीति सुराना

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