Saturday 21 January 2017

ये वादा रहा,..

अरे!
यूं जोर से
कुछ न कहा करो मुझसे
डर जाती हूं मैं,..

बचपन से
कभी किसी ने
डांटा नहीं मुझको,
न माँ पापा ने
न टीचर ने
क्योंकि मैंने मौका ही नहीं दिया,..
न जिद की
न शरारत
अलबत्ता
करती रही दिलों पर राज हमेशा,..
हां !
जब थोड़ी बड़ी हुई
तो माँगा एक बार
अपनी मर्जी का भविष्य,
उसे भी ये कहकर नकारा गया
बड़े तुम्हारा भला बुरा
समझते हैं तुमसे बेहतर,..
और सच!
दिल से स्वीकार किया
तुम्हारे हाथों
जीवन की बागडोर का सौंपा जाना,
कभी नहीं मांगा तुमसे कुछ भी
नारी स्वभावगत
घूमना फिरना, गहने, कपडे, शिकायतें
इन सब से परे जिया है
हमेशा स्वावलंबी जीवन
तुम्हारे आलंबन के बावजूद,..
आत्मनिर्भरता
मेरी जरुरत नहीं थी
पर हां
पहचान और पूंजी जरूर है,
सालों से हमारे बीच बना है
बेहतरीन सामंजस्य
और
हमें तो आदत है
मौन रहकर
एक दूसरे के प्रेम को महसूसने की
फिर
परिस्थिति जन्य
नाराजगी को समझने के लिए
शब्दों की
या यूं कहूं
ऊंची आवाज़ की जरुरत क्यूं है???

सुनो!!!
हालात फिर सुधरेंगे
अगर
हम नहीं बदले,..
बस थामे रहेंगे हमेशा
एक दूसरे का हाथ यूं ही
ये वादा रहा,...

प्रीति सुराना

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