Thursday, 26 January 2017

"सिर्फ एक दुआ"

तुम्हे पता है न!
मैं कांच सी पारदर्शिता के
साथ-साथ
नाज़ुक मिज़ाज भी रही हूं
परिस्थितियों ने हर बार तोड़ा है मुझे
और
जब भी टूटी हूँ
दर्द मुझे तो हुआ ही
लेकिन
लहूलुहान हुए हैं तुम्हारे भी हाथ
मेरे टुकड़ों को समेटते हुए,..
अब की बार तो इस कदर टूटी हूं
कि टुकड़ों में मेरा अक्श भी नहीं दिखेगा,
बिखर जाने दो मुझे
यही नियति है मेरी,...।
जल सी तरलता
मेरे बह जाने के डर से
मुझमे नहीं चाहते तुम
न सही,..
पर
सुनो
एक दुआ दो न मुझे,..!!!
ठोस रूप में
मुझे कांच सी नाजुक नहीं
पत्थर सी बन जाऊं मैं,
ठोंकरों से टूटूं भी
तो टुकड़ों से गढ़ी जा सकूं,
कभी मूर्ति
कभी पात्र
कभी चक्की के पाट
कभी भवन
कभी किसी शिलालेख के रूप में,
या फिर टूट कर बिखरुं
तो रेत सी
और एक दिन
तुम्हारे ही नीढ़ की किसी दीवार पर
मढ़ दी जाऊं
और
मेरा बिखरना भी सार्थक हो जाए,..
दोगे न!
अपने प्यार की खातिर
"सिर्फ एक दुआ" ,....

प्रीति सुराना

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