हां!!
खुशियां अकसर आती हैं,..
मेरे भी आँगन में
मगर *जुगनू* की तरह
एक पल को चमकती हैं
दूसरे ही पल गायब,..
कभी कभी
कैद करने की
कोशिश भी करती हूँ
अपनी हथेलियों के दरमियान,..
पर
डर कर छोड़ देती हूँ
कहीं दम न घुट जाए
इन जुगनुओं का,..
जबकि
जानती हूँ भलीभांति
इनकी चमक खो ही जानी है
सुबह के उजाले के साथ,..
और
इसमें इन जुगनुओं की क्या गलती
मेरे आंगन में धूप नहीं आती
और मेरा कमरा
घर के सबसे अंधेरे कोने में है,..
अरे सुनो!
मैं फिर भी निराश नहीं होती
कुछ देर की खुशियां भी
सुकून के कुछ पल देकर
जीने को प्रेरित करती है,..
मैं रोक लेती हूं
कभी कभी
प्यार से
मनुहार से
समर्पण से,..
अपने जीवन अँधेरे कमरे में
जुगनुओं को
कभी कभी
दिन में भी,... प्रीति सुराना
सुन्दर भाव ।
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